घनश्याम
मृणाल पाण्डे की बौद्धिक टिप्पणी के सामने आने के बाद बहुतों ने याद किया कि कैसे एक समय हिन्दी में बहुत सी पत्रिकाएं थीं.. कादम्बिनी, साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, नवनीत, सारिका… और बच्चों की नंदन, पराग, सुमन सौरभ… सब एक एक कर के बन्द हो गए. हिन्दी के लेखक और साहित्यकार सब रोना रोते रहे कि हिन्दी में पाठक नहीं हैं, और हिंदी साहित्य धीरे धीरे मरता गया..
मैं सोचता हूं, जब हिंदी में प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, दिनकर, निराला महादेवी और रेणु हुआ करते थे तो हिन्दी में पाठक हुआ करते थे. फिर कौन सी महामारी आई कि सारे पाठक डायनोसोर के लोक में चले गए?
दसवीं क्लास में हमारी हिंदी के सिलेबस में एक पुस्तक हुआ करती थी – कहानी संकलन. उसमें प्रेमचंद, यशपाल, जैनेन्द्र कुमार, रेणु आदि लेखकों की सात कहानियां संकलित थीं. लेकिन उसके अलावा उस पुस्तक की भूमिका में हिन्दी साहित्य के इतिहास पर एक लंबा सा लेख था जिसे कम ही लोग पढ़ते थे. उसमें हिंदी साहित्य के आधुनिक काल में एक “नई कहानी” का कालखंड वर्णित था, और हिंदी के आधुनिकतम लेखकों की पीढ़ी का जिक्र था..और ये आधुनिकतम स्तंभ थे मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव और कमलेश्वर.
मैं इसमें से मोहन राकेश का नाम अपेक्षाकृत ससम्मान लेना चाहूंगा लेकिन जिसने हिंदी के स्तंभों में महादेवी, निराला, जयशंकर प्रसाद और पंत जी के नाम पढ़े हों उन्हें वह इमारत राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी के कंधों पर टिकी कैसी दिखेगी?
अस्सी के दशक में मैंने एक पत्रिका को बहुत ध्यान से फॉलो किया था, और वह थी सारिका. जब से पढ़ना सीखा, सारिका का लगभग हर अंक पूरा पढ़ा हूं. धीरे धीरे सारिका की कहानियां साहित्य के बजाय अखबार बनती चली गईं. हर कहानी किसी सामाजिक मुद्दे पर विद्रोह का झंडा लिए खड़ी होती थी. लेकिन फिर धीरे धीरे ऐसा समय आया जब सारिका में छपने के लिए हिंदी की कहानियां नहीं हुआ करती थीं. तो कुछ साल तक सारिका चेखव विशेषांक, हेमिंग्वे विशेषांक, ओ हेनरी विशेषांक के बहाने से दूसरी भाषाओं का साहित्य हिन्दी में अनुवाद करके छापता रहा. फिर पत्रिका ने “जब्तशुदा” कहानियों के बहाने से दुनिया भर में बैन हुई सॉफ्ट पोर्न कहानियां भी छापी. लेकिन फिर भी यह पत्रिका नहीं चली. यह पत्रिका के बदले पहले एक अखबारनुमा शक्ल में कुछ दिन छपी और 1988-89 के आसपास मैगजीन स्टैंड से गायब हो गई.
जिन्होंने दूसरी पत्रिकाओं की जीवन यात्रा को फॉलो किया होगा, सबके साथ यही घटनाक्रम दिखाई देगा. पहले पहले साहित्य की गंगा में आइडियोलॉजी का नाला आकर मिलता है, फिर दिन पर दिन वह धारा भी सूख जाती है. हिन्दी के पाठक नहीं मर गए, आपने साहित्य में आइडियोलॉजी का मसाला मिला दिया. फिर वह मसाला बढ़ता चला गया और अंत में सिर्फ आइडियोलॉजी ही बची, साहित्य मर ही गया.
यह दुर्घटना सिर्फ साहित्य में नहीं…कला में, संगीत में, सिनेमा में… हर जगह हुई है. और यह बात हर आइडियोलॉजी पर लागू होती है. आइडियोलॉजी साहित्य और कला का जहर है. उसे मार देता है. अगर कला में आइडियोलॉजी को मिलाना भी हो तो वह सब्जी में नमक या मसाले बराबर होना चाहिए. अगर आइडियोलॉजी को ही आलू बैगन बना लिया जाए तो वह किसी के गले नहीं उतरेगा.