वीर विनोद छाबड़ा
पार्टीशन पूर्व इरा में फिल्म इंडस्ट्री का बहुत बड़ा हिस्सा लाहौर में होता था. उस दौर में एक कॉमेडियन था दुर्गा मोटा. मोटा इसलिए कि उसका जिस्म बहुत भारी-भरकम और ऊँचे कद का रहा. फ़िल्मी इतिहास पलटने पर उसका ज़्यादा ज़िक्र नहीं मिलता है. बस इतना मालूम है कि उसके डील-डौल पर लोग हँसते थे. ये इस सब-कॉन्टिनेंट वालों की बहुत पुरानी आदत रही है, किसी की जिस्मानी विकृति पर हंसना या फिर उसकी भाषा का मज़ाक उड़ाना. दुर्गा मोटा के पास कमाई का कोई ज़रिया नहीं था. किसी ने सलाह दी, फिल्मों में चले जाओ, तुम्हें देख कर लोग हंसेंगे तो पैसा मिलेगा. इससे रोटी-पानी का इंतज़ाम तो हो ही जाएगा.
दुर्गा को आईडिया अच्छा लगा और उसकी ज़िंदगी आराम से चलने लगी. कहीं भीड़ में खड़ा कर दिया तो कभी भिखारी बना दिया, यानी एक्स्ट्रा आर्टिस्ट. पार्टीशन से पहले उसे खजांची, ख़ानदान और ज़मींदार जैसी हिट फिल्मों में देखा गया. टाईटल में नाम भी दिया गया. दुर्गा मोटा इतना भारी था कि उसके लिए खुद को उठा कर चलना भी मुश्किल होता था. जैसे-तैसे खुद को ठेलता हुआ चलता था. तभी मनहूस ख़बर आयी, तय हो गया है कि पार्टीशन के बाद लाहोर पाकिस्तान में ही रहेगा. बस फिर क्या था, दंगे शुरू हो गए.
चारों तरफ मार-काट और आगजनी. जिसको जो भी वाहन मिला अमृतसर या जालंधर के लिए रवाना हो गया. कुछ लोग पैदल ही चल दिए. मरते-कटते लोग सरहद पार करते रहे. इधर से भी और उधर से भी. अब दुर्गा मोटा के सामने समस्या आई. वो कैसे जाए? चूँकि इंसानियत किसी कोने में ज़िंदा थी अतः कुछ मुस्लिम मित्रों ने उसे रेलवे स्टेशन तक पहुंचा दिया. ठसाठस भरी ट्रेन प्लेटफॉर्म पर खड़ी थी. जब दुर्गा पहुंचा तो ट्रेन ने रेंगना शुरू कर दिया. दुर्गा मोटा के लिए भाग कर उसे पकड़ पाना तो नामुमकिन था. दंगाई उसके पीछे लगे हुए थे.
मैंने एक किताब में पढ़ा था कि वो क़त्ल कर दिया गया. लेकिन कुछ दिन बाद एक अन्य किताब में पढ़ा कि वो शायद क़त्ल कर दिया जाता अगर उसे उसके हमदर्द बचाने के लिए न आये होते. उन्होंने उसे जैसे-तैसे ट्रेन के डिब्बे में ठेल दिया. दुर्गा बंबई पहुँच गया. किताबों और रिसालों में बस इतना ज़िक्र मिलता है कि उसने पार्टीशन के बाद ‘नेकदिल’ और ‘रूपरेखा’ में काम किया. दुर्गा के मरने की ख़बर लाहौर के एक अख़बार में छपी।
मुझे नेट पर इसकी क्लिप मिली है. मगर ये नहीं पता चलता है कि किस साल उसका स्वर्गवास हुआ। छोटे आर्टिस्टों के साथ यही दिक्कत होती है। कई लोग तो बिना ख़बर बने ही चले जाते हैं।