डॉ दिलीप अग्निहोत्री

यही कारण है कि निर्वाचन आयोग के साथ राजनीतिक पार्टियों की बैठक बिना किसी कारगर नतीजे के समाप्त हुई। ऐसा नहीं कि चुनावी प्रक्रिया में सुधार की गुंजाइश नहीं है। निर्वाचन आयोग के एजेंडे में अनेक विषय थे। लेकिन विपक्षी पार्टियां ईवीएम में ही उलझी रही है। यह मुद्दा उनकी नाकामी छुपाने जरिया बन गया है। ये बैलेट के दौर में लौटने चाहते है। कुछ दिन पहले ही पश्चिम बंगाल पंचायत राज चुनाव का उदाहरण सामने है। ये चुनाव बैलेट पेपर से हुए थे। सत्ता पक्ष ने इसमें जम कर बूथ कैप्चरिंग की थी। बैलेट बॉक्स सड़क और नदियों में पड़े मिले थे।
आज जो राजनीतिक पार्टियां बैलेट पेपर की हिमायत कर रही है, प्रायः ये सभी ईवीएम चुनाव चुनाव से सत्ता में पहुंची थी। कांग्रेस,सपा, बसपा, सहित इनकी सूची लंबी है।
इसका मतलब है कि जब ये सत्ता में पहुंचे ,तो ईवीएम कोई मुद्दा नहीं रहेगा, जब मतदाता इनको नाकामियों के कारण पराजित कर दें तो ईवीएम दोषी हो जाती है। मतदाताओं को ऐसी बातों से प्रभावित नहीं किया जा सकता। विपक्षी पार्टियां ईवीएम के पीछे पड़कर अपनी ही कमजोरी जाहिर कर रही है।चुनाव आयोग ने इस बैठक में आने वाले विधानसभा चुनाव, लोकसभा चुनाव समेत अन्य मुद्दों पर चर्चा की। मीटिंग के मुद्दों में मतदाता सूची को ज़्यादा पारदर्शी बनाने के साथ ही राजनीतिक दलों के संगठन और चुनावी उम्मीदवारी में महिलाओं की नुमाइंदगी, भागीदारी और ज़्यादा अवसर देने के उपाय करना भी शामिल था।
देश के कई राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव और अगले साल के आम चुनाव से पहले अहम मसलों पर चर्चा के लिए चुनाव आयोग ने सोमवार को देश के सभी राष्ट्रीय राजनैतिक दलों और राज्यों के राजनैतिक दलों की बैठक बुलाई. इस बैठक में आयोग ने चुनाव से जुड़े कई महत्वपूर्ण मसलों पर राजनीतिक दलों से सुझाव मांगा।

राजनीति में मुद्दों की कोई कमी नहीं होती। विरोधी पार्टियां सरकार को घेरने में इनका उपयोग करती है। इसमें अनेक गंभीर विषय भी होते है। पिछले लोकसभा चुनाव के बाद से इसमें दिलचस्प प्रकरण जुड़ा है। राजनीति के दांव पेंच के बीच कुछ अंतराल पर ईवीएम का मुद्दा जरूर उठता है। ऐसा लगता है कि माहौल को हल्का और दिलचस्प बनाने के लिए इसे उठाया जाता है। विपक्षी नेता जानते है कि इस मुद्दे में कोई दम नहीं है। करीब चार वर्षों से इसे उठाया जा रहा है। लेकिन आमजन ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया है। इसके बाद विपक्ष को इस मुद्दे से तौबा कर लेनी चाहिए थी।
चुनाव आयोग की चुनौती ने तो इस मुद्दे की हवा ही निकाल दी थी। उसने सभी पार्टियों को ईवीएम में कमी निकालने अवसर दिया था। वह अपने साथ विशेषज्ञ भी ले जा सकते थे। लेकिन सभी पार्टियां वहां से बच निकली। किसी ने चुनाव आयोग की चुनौती स्वीकार करने का साहस नहीं दिखाया।
इसके बाद ईवीएम पर विपक्ष के दावे का महत्व समाप्त हो गया था। इसे उठाने वाले अपनी ही विश्वसनियता कम कर रहे थे। कुछ पार्टियों ने तो स्थिति को समझ कर इस पर तूल देना बंद कर दिया। कुछ नेता समय समय पर इसे जरूर उठा देते है। वह बैलेट पेपर से चुनाव की मांग करते है। जबकि उसमें बूथ कैप्चरिंग के आरोप ज्यादा लगते थे। खासतौर पर दबंग लोग दलितों को वोट देने से रोक देते थे। ईवीएम के आने के इस पर रोक लगी है। बसपा प्रमुख मायावती ने यह मुद्दा उठाया था।
लोकसभा चुनाव में सफाए के बाद उन्होंने ईवीएम पर अपनी पराजय का ठीकरा फोड़ दिया था। वह अपने मतदाताओं को यह बताना चाहती थी कि उनका करिश्मा कायम है, ईवीएम के कारण हार गए। तब मायावती से किसी ने नहीं पूछा कि वह ईवीएम कौन सी थी, जिसने उन्हें पूर्ण बहुमत से मुख्यमंत्री बनाया था। मायावती ने यह बात शायद समझी। उनका मकसद पूरा हो गया था। इसके बाद उन्होंने इसे उठाना प्रायः बन्द कर दिया। लेकिन कुछ पार्टियां उनके छोड़े मुद्दे पर आज भी अटकी है। वह यूरोप के कुछ देशों के उदाहरण देते है। लेकिन भारत से इसकी तुलना ठीक नहीं। यहां की मशीन कसौटी पर खरी उतरी है।
मजेदार बात यह कि यह मुद्दा तभी उठता है जब कहीं भाजपा विजयी होती है। विपक्ष विजयी होता है तब यह शांत हो जाता है। पंजाब में विजयी हुए, उपचुनाव जीते तब ईवीएम पर सवाल नहीं उठे। कर्नाटक में सरकार बनाए जाने के जश्न में पूरा विपक्ष पहुंच गया था। किसी ने नहीं कब ईवीएम गड़बड़ है, बैलेट से चुनाव होने चाहिए। विपक्ष चित्त पट सब अपनी मर्जी से तय करना चाहता है।