संविधान उल्लेखित समानता को आखिर कब मिलेंगे पंख, अब नई रीति को पुरानी रीति का ले लेना चाहिए स्थान
डॉ. दीपा शर्मा, झाँसी, उत्तर प्रदेश
डॉ. दीपा शर्मा अपने मरीजों के लिए एक बेहतरीन चिकित्सक तो हैं हीं साथ में समाज में अंतिम पायदान के लोगों के स्वास्थ्य और भले के लिए एक समाज सेविका भी। उनके मन में बेटियों के प्रति जो भाव हैं वो समाज में एक बड़े सकारात्मक बदलाव की ओर इंगित करता है। जो वाजिब और न्यायोचित है। ऐसा होने पर समाज में बड़े सकारात्मक परिवर्तन की लहर दिखना वाजिब है।
डॉ. दीपा शर्मा जी की सीनियर कॉपी एडीटर राहुल कुमार गुप्ता से समाज में बेटियों की स्थिति को लेकर कुछ महत्वपूर्ण बातें जो आपके समक्ष हैं। डॉक्टर शर्मा भारतीय संविधान की महत्ता को नमन करते हुए बताती हैं कि हमारा भारतीय संविधान हमारे जीवन को समतापूर्ण और सम्मानित ढंग से जीने का अधिकार बिना किसी भेदभाव के हम सब को देता है। पूर्व काल में स्त्रियों व दलितों की स्थिति बेहतर नहीं थी । फिर स्वतंत्रता बाद संविधान ने सम्मान जनक जीवन जीने का लिखित अधिकार तो सबको दे दिया था किन्तु पुरूष प्रधानता के कारण संविधान में उल्लेखित समानता को यहाँ(वर्तमान) तक आने में बड़ा वक्त लगा है और देखते हैं कि कितना और वक्त लगेगा कि पुरूष और स्त्री में समानता समाज में भी चलन में आ जाये।
उन्होंने आगे कहा कि आज भी देश में बेटियों को केवल पराये धन की उपमा देकर उसे मानसिक रूप से विवाह के बाद घर के कामों के लिए किशोरावस्था से तैयार कराया जाने लगता है। जबकि वहीं उसी घर में एक किशोर बालक इन सब कामों से अंजान रहता है। हमारे घर से ही भेदभाव का बीज अंकुरित होने लगता है। मजबूरी भी है कि समाज की यही रीति भी है। ऐसा नहीं है कि ये रीतियाँ पत्थर की लकीरें हैं। तमाम बेटियों ने आज इन रीतियों से ऊपर उठकर अपने माँ-बाप और राष्ट्र का नाम रोशन कर शक्ति का पर्याय बनकर उभरी हैं।
भारतीय संविधान हर समाज व हर धर्म की बेटियों के लिए उनके खुशहाल जीवन जीने के तरीकों का मैग्नाकार्टा है। जो देर सबेर बेटियों को उसकी उचित समानता से नवाजेगा जरूर।
महिला सशक्तीकरण के लिए सरकारी प्रयास आज भी अंतिम अवस्था (अपने लक्ष्य) को न प्राप्त कर आज भी प्रयास के रूप में कुछ हद तक जमीनी स्तर पर तो ज्यादातर फाइलों में उल्लेखित है।
थोड़ा चिंतित होते हुई डॉ. शर्मा ने बताया कि जब एनसीआरबी की रिपोर्ट जारी होती है तो लगभग हर तरह के अपराधों का शिकार बेटियां और महिलाएं ही होती हैं। घरेलू हिंसा, रेप, हत्या, तेजाब कांड, अपहरण, छेड़छाड़ आदि इनके केसेज तो रुकने के बजाय बढ़ते ही जाते हैं। वजह की जड़ एक है महिलाओं व बेटियों के प्रति समाज में सम्मान की कमी। जब पुरुष प्रधान समाज में बेटियों के प्रति सम्मान की भावना जाग्रत होगी बहुत से अपराध स्वतः ही खत्म हो जायेंगे।
दहेज प्रथा भी सरकारी फाइलों में जरूर निष्क्रिय होकर कानून के गुणगान का हिस्सा बन रही होगी लेकिन व्यावहारिक रूप में सबको पता है हकीकत क्या है? मैं एक चिकित्सक होने से पहले एक बेटी भी हूँ तमाम कुरीतियों को अपनी आँखों से देखा है अनुभव किया है।
यह मेरी खुशकिस्मती कुछ और लोगों की भी हो सकती है कि ससुराल में ऐसी कुरीतियों की कोई जगह नहीं थी। लेकिन ऐसा सबके साथ नहीं है। बेटियों की बड़ी संख्या इन कुरीतियों की कुटिल गणित के जाल में अपना सर्वस्व बलिदान करती आ रही है।
उन्होंने आगे बताया कि शादी-विवाह में दहेज के अलावा भी कुछ कुरीतियाँ और हैं जो की किसी भी बेटी को बिलकुल नहीं पसंद लेकिन परंपराओं के बोझ तले वो इन्हें भी बड़ी शालीनता के साथ ग्रहण करती है।
वर पक्ष में आज भी प्रभुत्व की भावना रहती है और इधर वधू पक्ष पूरी तरह से झुका हुआ रहता है। जब बेटी के माँ-बाप अपनी बेटी के होने वाले सभी ससुरालीजनों के पैर छूते हैं वो भले उम्र में छोटे हों, इस वक्त भी बेटी के हृदय में गाज सी गिरती है कि उसके माँ-बाप ने उसे पैदा कर क्या गलत किया! जो बेटी के विवाह पूर्व से जीवन के अंत तक व उसके बाद भी हर ससुराली जन के पैर छूने पड़ रहे हैं। वो भले उम्र में छोटा हो, मानवता की कमी हो फिर भी बेटी के माँ-बाप का सिर इनके समक्ष झुका रहता है।
दान देने वाले का सिर तो हमेशा गर्व से ऊँचा रहता है तो संसार का सबसे बड़ा दान कन्यादान देने वाले का सिर झुका क्यों रहता है? इस परंपरा के जनकों व समाज के अगुआ लोगों के पास इस तर्क का कोई उचित उत्तर कभी नहीं था, न है और न कभी होगा।
बेटी के माँ-बाप का वो रोता हुआ हृदय किसी को नजर नहीं आता दिल में कितने कठोर पत्थर रखकर अपनी खुशियों को जमींदोंज कर वो समाज की परंपराओं को जीवित रखता है। उनका पूरा जीवन इस भय और संशय में रहता है कि कहीं बेटी का ससुराल पक्ष सही न हो! उन्हें पता होता है कि बड़े लाड़ प्यार और दुलार से पाली उनकी बेटी भी अब अपनी इच्छाओं की आहुति देकर औरों के खुशी का ध्यान रखेगी। और उनकी बेटी का यह बलिदान किस सीमा तक जायेगा? क्या वो वहां का सब सहन कर पायेगी? उसे हर चीज सहने की शिक्षा दी जाने लगती है। ताकि एक परिवार का वो चला सके। माँ-बाप भाई बहन से दूर रहने का गम और आदतों को दूसरों के हिसाब से ढालने में मानसिक और शारीरिक कितने परिवर्तन सहने होते हैं एक बेटी को। यह सब तकलीफें वर पक्ष अगर समझता तो बेटी को और बेटी के परिवार वालों को सम्मान का नोबल जरूर देता और अपनी वधू की इच्छाओं का भी पूरा सम्मान करता। ऐसी स्थिति में न बहुत ज्यादा बेटी को तकलीफ होती न ही बेटी के माँ-बाप को।
डॉ. शर्मा ने कहा अब ऐसी नई समझदार और न्यायोचित रीति का विकास हो और अब पुरानी कुरीतियों का स्थान इस नई रीति को ले लेना चाहिए। गाड़ी के पहिए जब पुराने हो जाते हैं तो गाड़ी के पलटने के चांस ज्यादा रहते हैं या फिर गाड़ी ठीक से चलती नहीं। यही स्थिति आज के समाज की है। हमें भी पारिवारिक गाड़ी के सही चालन के लिए उपरोक्त नई रीति या जो और बेहतर हो वो समाज में बड़े व्यापक रूप से छा जानी चाहिए। संभावना है कि मात्र इतने बदलाव से ही दहेज प्रथा का असुर अपनी अंतिम साँसें गिनने लगेगा। महिलासशक्तिकरण के लगातार अनगिनत प्रयास भी अपने लक्ष्य को पाकर संविधान उल्लेखित पंखों से सुसज्जित समानता को खुला आसमान दे देगा।