एक बार तीन दोस्त परेशान बैठे थे। बार-बार पूछने पर भी वह अपनी परेशानी नहीं बता रहे थे। चाय पीते हुए उन्होंने सबसे कहा, ‘अपनी परेशानी बताते हो या हम चाय छोड़कर चले जाएं?’ तब उनमें से एक बोला, ‘क्या बताएं दोस्त, बड़ा ख्वाब था अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी में पढ़ने का, बड़ी जद्दोजहद करके यहां तक पहुंच भी गए, मगर अब आगे का सफर मुश्किल लगता है। हम सब अपनी सारी मेहनत, जान-पहचान लगा चुके हैं। हममें से किसी की भी फीस भरने का इंतजाम नहीं हो सका है। अब लगता है कि एएमयू छोड़ना ही पड़ेगा। इतना ही साथ बहुत था दोस्त, कम से कम हमने एएमयू की सरजमीन तो देख ली।’
सुनकर उसने टोका, ‘बस, इतनी सी बात है? फीस के पैसे मुझसे लो और यहीं रहो।’ सब दोस्तों को उसकी स्थिति का अंदाजा था। शुरू में उन सबने उसे रोकने की कोशिश की, लेकिन उसके दबाव के आगे सबको झुकना पड़ा। वह हॉस्टल पहुंचा और बैग में रखे सारे रुपए निकालकर दोस्तों को दे दिए। सबकी फीस जमा हो गई और उनकी पढ़ाई चलती रही। मगर उनकी फीस देने वाला घर लौटा तो महीना भर यूनिवर्सिटी वापस ही नहीं आया।
दोस्तों ने खूब छानबीन की, मगर कुछ पता नहीं चला। अरसे बाद पता चला कि उसने अपनी फीस और एएमयू में रहने के लिए मिलने वाला सारा खर्च दोस्तों की फीस के लिए दे दिया था। जिसकी वजह से उसको क्लास भी छोड़नी पड़ी और हॉस्टल भी, क्योंकि उसके पास खर्च करने को कुछ बचा ही नहीं था। जब दोस्तों को यह बात पता चली तो सबने अपना सिर पीट लिया। उसने उन सबके लिए अपना भविष्य ही दांव पर लगा दिया था। यह थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी रफी अहमद किदवई। तभी तो उनके दोस्त रफियन कहलाते थे। दोस्तों के लिए मर मिटने वाले।
यह था इतिहास:
18 फ़रवरी 1894 को ग्राम मसूली जिला बाराबंकी, उत्त्तर प्रदेश में एक ज़मींदार श्री इम्तियाज़ अली के घर पांच भाइयो में सबसे बड़े संतान के रूप में जन्मे श्री रफ़ी अहमद किदवई भारत के राजनेता और भारत के स्वतंत्रता संग्राम के योद्धा थे।
रफ़ी साहब ने अपने शुरूआती शिक्षा गाव के स्कूल में ली इसके बाद सरकारी उच्च विद्यालय की तरफ रुख किया। 1913 के बाद रफ़ी साहब ने मोहम्मादन एंग्लो ओरिएण्टल कोलेज अलीगढ में दाखिला लिया जहा उन्होंने बी ए से स्नातक 1918 में किया। इसके बाद उन्होंने एल एल बी करना चाहा लेकिन नॉन को ओपरेशन आन्दोलन और खिलाफत अन्दोलन के चलते रफ़ी साहब को एल एल बी तर्क करनी पड़ी।इन आन्दोलनों की वजह से उन्हें जेल जाना पडा।
मोहम्मादन एंग्लो ओरिएण्टल कोलेज,अलीगढ में दाखिला लेते ही रफ़ी साहब राजनिति में खिलाफत आन्दोलन के जरिया सक्रिय हो गए। 1922 में जेल से निकलने के पश्चात किदवई साहब इलाहबाद गए,जहा आप नेहरु परिवार से,मोती लाल नेहरु के पहले सेक्रेटरी के रूप में जुड़े।1926 को किदवई साहब सेंट्रल लेजिस्लेटिव असेंबली के लिए चुने गए। आपने कई आन्दोलन और पार्टियों जैसे 1926 से 1929 तक सीएलए में कोंग्रेस की तरफ से, सत्य्ग्रह आन्दोलन में और “नो-टैक्स मूवमेंट” 1930-31 में, अहम् नेता नेता के रूप में कार्य किया।
गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट 1935 में आपने कोंग्रेस की ओर से कार्य संभाला।1930-31 से आजादी तक आपने कोंग्रेस के एक बड़े नेता गोविन्द बल्लभ पन्त के साथ कार्य किया और गवर्नमेंट और इंडिया एक्ट 1935 के तेहेत आपने 1937 से 1946 तक सरकार राजनीती में सक्रिय रहे।
1937 में किदवई साहब बल्लभ पन्त साहब की कबिनेट में रेवेनुए एंड प्रिजन के आगरा और ओउध (उत्तर प्रदेश) के मंत्री बनाये गए। उनके नेतृत्व में उत्तर प्रदेश पहला ऐसा राज्य बना जहा ज़मींदारी प्रथा को ख़तम कर दिया गया। 1946 में आप उत्तर प्रदेश के गृह मंत्री बने।
15 अगस्त 1947 को नेहरु ने किदवई साहब के सामने कम्युनिकेशन मिनिस्टर बनने का प्रस्ताव रखा जिसे बाद में अमली जामा पहना कर किदवई साहब को भारत का पहला मिनिस्टर फॉर कम्युनिकेशन बनाया गया
1952 के पहले आम चुनाव में किदवई साहब बहरैच से चुने गए। नेहरु ने उनको फ़ूड एंड एग्रीकल्चर मंत्रालय दे दिया
24 अक्टूबर 1955 को दिल की बीमारी और एक जनसभा में आये दमे के हमले ने उनको इस दुनिया से अलविदा कर दिया। किदवई साहब को उनके होमटाउन मसौली में ही तद्फीन कर दिया गया। एक ज़मींदार घर में पैदा होने के बाद और अपना धन ज्यादा से ज्यादा खैरात करने के कारण उनकी मृत्यु एक कर्जदार के हाल में हुई और अपने पीछे एक घर छोड़ गए।