पटना, 22 नवंबर 2018: बिहार सरकार द्वारा राज्य में अप्रैल 2016 से अल्कोहल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा के तीन साल पूरे होने के मद्देनजर जनमत प्लेटफाॅर्म ‘जन की बात’ ने आज एक सर्वेक्षण रिपोर्ट जारी की है। सर्वेक्षण के दौरान 65.71 प्रतिशत प्रतिभागियों का मानना था कि राज्य सरकार और कानून प्रवर्तन प्राधिकारी अल्कोहल निषेध को लागू करने में विफल रहे और 12.44 प्रतिशत प्रतिभागियों ने इस निषेध का पुरजोर विरोध किया।
यह सर्वेक्षण बिहार के सात जिलों – समस्तीपुर, मुजफ्फरपुर, वैशाली, मधुबनी, बेगूसराय, पटना और दरभंगा- के 3,500 प्रतिभागियों के बीच किया गया। इसका उद्देश्य मौजूदा निषेध कानून पर आम लोगों की राय जानना और लोगों के जीवन पर इसके प्रभाव का आकलन करना है।
इस सर्वेक्षण के अन्य दिलचस्प खुलासे इस प्रकार हैंः
- एक तिहाई प्रतिभागियों का मानना था कि यह लोकप्रिय निषेध कानून अगले चुनाव में नीतीश कुमार सरकार पर नकारात्मक प्रभाव डालेगा।
- 58.72 प्रतिशत प्रतिभागियों ने कहा कि वे नीतीश कुमार सरकार से नाखुश हैं।
यहां तक कि जो लोग शराबबंदी को एक सकारात्मक पहल मानते हैं उन्होंने भी प्रतिबंध के कार्यान्वयन में गंभीर खामियों को लेकर स्पष्ट तौर पर असंतोष जताया कि इन खामियों के कारण पूरी पहल निष्प्रभावी हो गई है।
स्थानीय लोगों से बातचीत के दौरान बार-बार उभरने वाला संदेश यह था कि शराबबंदी प्रभावी नहीं दिख रही है। सर्वेक्षण में जोर देकर कहा गया है कि बिहार में शराब पर प्रतिबंध लगाए जाने के बाद गरीब और कमजोर तबकों के लोगों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति कहीं अधिक बदतर हुई है। राज्य में शराब तस्करी बेधड़क चल रही है और घूसखोरी एवं भ्रष्टाचार के मामलों में तेजी आई है।


इस निषेध के कारण कई लोगों को अपनी वैध नौकरियां गंवानी पड़ी और अपने परिवारों को भारी कर्ज बोझ से बचाने के लिए युवाओं और महिलाओं द्वारा शराब की अवैध बिक्री बढ़ रही है। पर्याप्त नैतिक और सामाजिक शिक्षा के अभाव में युवा पीढ़ी बोतल के बदले सस्ती नशा करने लगी है जिससे लत की समस्या कई गुना बढ़ गई है जबकि शराबबंदी का उद्देश्य इसे दूर करना था।
जन की बात के संस्थापक एवं सीईओ प्रदीप भंडारी ने इस सर्वेक्षण के नतीजों पर बोलते हुए कहा, ‘बिहार में शराबबंदी की नीति ने शराब को काफी महंगा कर दिया और इससे शराब की एक काली अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिला विशेष तौर पर बच्चों द्वारा इसके अवैध कारोबार के संदर्भ में। मध्यावधि में यह मुद्दा राजनीतिक तौर पर भी उठाया जा सकता है। जबकि विनियमन के लिए नीतिगत कदम एक बेहतर राजनीतिक विकल्प हो सकता है।’