नई दिल्ली, 18 अगस्त 2018: अंधाधुंध विकास ने मनुष्य के लिए खतरे बढ़ा दिए हैं। भारतीय प्रोद्यौगिकी संस्थान (आइआइटी), गांधीनगर के शोधकर्ताओं के एक अध्ययन में सामने आया है कि भारत में बन रहे आधुनिक भवनों और इमारतों में 1990 के मुकाबले आग लगने का खतरा तीन गुना ज्यादा बढ़ गया है। यह सब घर और ऑफिस में सुख-सुविधाओं वाली जीवनशैली और सामाजिक आर्थिक बदलाव का नतीजा है।
अध्ययनकर्ताओं ने कहा कि आजकल के भवनों और इमारतों में जिस प्रकार छतों, पार्टीशन और दरवाजों के लिए प्लास्टिक का उपयोग किया जा रहा है, वह बेहद खतरनाक हो सकता है। इसके अलावा इंटीरियर डेकोरेशन में प्रयोग होने वाले आइटम, वाशिंग मशीन, रेफ्रिजरेटर, एयर-कंडीशनर, मोबाइल, टीवी जैसी चीजों ने हमारा जीवन भले आसान और मनोरंजक बनाया हो, लेकिन इनकी वजह से आग लगने का खतरा बढ़ गया है।
इनमें अधिकांश चीजें ऐसी हैं, जो ज्वलनशील पदार्थों से बनी हैं। आजकल कागजी काम की जगह डिजिटलाइजेशन हो रहा है। ऐसे में सेल्युलोज का स्थान प्लास्टिक ने ले लिया है, जो कि उससे भी ज्यादा ज्वलनशील है।
शोधकर्ताओं ने अहमदाबाद में 105 ऑफिस और विभिन्न छात्रवासों के 202 छात्रों पर सर्वे में पाया कि औसत अग्नि वहन ऊर्जा घनत्व 1400 मेगा जूल प्रति वर्गमीटर पाया गया। यह 20 साल पहले कानपुर में हुए सर्वे (487 मेगा जूल/वर्गमीटर) के मुकाबले तीन गुना ज्यादा है। इसके अलावा आग लगने के पहले घंटे में होने वाले तापमान की मात्रा भी पहले के मुकाबले काफी अधिक है।
आइआइटी गांधीनगर के सहायक प्रोफेसर गौरव श्रीवास्तव और छात्रा नसार अहमद खान का कहना है कि वर्तमान में भारत में 1970-80 से चले आ रहे आग से सुरक्षा के मानकों के पुनरावलोकन की आवश्यकता है। गौरव श्रीवास्तव का कहना है कि किसी बिल्डिंग की आग से सुरक्षा इस बात पर निर्भर करती है कि उसके निर्माण में प्रयोग हुई चीजों का तापमान क्रांतिक तापमान के नीचे रहे।
ऐसे वर्तमान में भवन निर्माण में प्रयोग हो रही चीजों की दोबारा रेटिंग की आवश्यकता है। निर्माण में प्रयोग होने वाला सेल्युलोज मेटीरियल का जलने वाले पदार्थों में से सबसे ज्यादा हिस्सा होता है। इसके बाद प्लास्टिक, कपड़े और चमड़े का सामान आता है। घरों में कपड़े की मात्रा, प्लास्टिक और चमड़े के सामान से अधिक पाई जाती है।