अंशुमाली रस्तोगी चिकोटी से
हालांकि मैं पाद-विशेषज्ञ तो नहीं फिर भी अपने अनुभव के हिसाब से कह सकता हूं, दुनिया में पादने से बेहतर दूसरा कोई सुख नहीं। पादकर संपूर्ण तृप्ति का एहसास मिलता है। महसूस होता है, पेट के डिब्बे में जो गैस कई मिनट या घंटों से परेशान कर रही थी- उसे मात्र एक पाद ने ध्वस्त कर दिया। तीव्र वेग से आया पाद पेट के साथ-साथ दिमाग को भी काफी हद तक सुकून देता है।
मुझे नहीं मालूम मेडिकल साइंस में पाद या पादने पर कभी कोई रिसर्च हुई है कि नहीं। पर हां इत्ता दावे के साथ कह सकता हूं कि यह विषय है बेहद शोध-युक्त। ज्यादा कुछ नहीं तो कम से कम इस बात पर तो रिसर्च होनी ही चाहिए कि इंसान दिन भर में कित्ता और कित्ते किलो पाद लेता है। (यहां पाद को- बतौर किलो- इसलिए लिखा क्योंकि पाद एक तरह से गैस ही होती है)। या फिर किन-किन स्थितियों-परिस्थितियों में पाद सबसे अधिक आते हैं। खुशी के पाद कैसे होतें, गम के पाद कैसे होते हैं, असंतोष के पाद कैसे होते हैं, अराजकता के पाद कैसे होते हैं, आंदोलन के पाद कैसे होते हैं, विमर्श या लेखन के पाद कैसे होते हैं, उत्तेजना के पाद कैसे होते हैं। आखिर मालूम तो चले कि पादने का मनुष्य के जीवन में कित्ता और कैसा महत्त्व है।
औरों के बारे में तो नहीं किंतु अपने बारे में कह सकता हूं कि मैं दिनभर में पांच-सात बार आराम से पाद लेता हूं। मुझको सबसे अधिक पाद व्यंग्य लिखते हुए आते हैं। व्यंग्य लिखते वक्त आ रहे पादों को मैं रोकता नहीं बल्कि खुलकर आने देता हूं। उस दौरान पाद जित्ता लंबा और तगड़ा आता है, व्यंग्य उत्ता ही उम्दा बनता है। इसे मैंने अब अपना टोटका-सा बना लिया है। जब भी व्यंग्य लिखने बैठता हूं- पादता अवश्य हूं। पाद के रास्ते मेरे पेट का सारा कचरा बाहर निकल जाता है। फिर मैं कहीं अच्छा लिख पाता हूं।
मुझे तेज-तर्रार पादने वाले अधिक पसंद हैं। उनके पादे की आवाज में एक अजीब तरह की गूंज होती है। गूंज की महक फिजा में कुछ देर तलक यों बनी रहती है- मानो किसी ने मदमस्त गंध वाला डियो छिड़का हो। धीमा पादने वाले अपने जीवन में भी बेहद धीमे होते हैं। पता नहीं तेज पादने में उन्हें क्या तकलीफ होती है। कई-कई तो इत्ते सियाने होते हैं कि अपने पाद को बीच में ही रोक लेते हैं। बेचारा पाद मन मसोस कर रह जाता है पेट के भीतर। गाली देता होगा कि साला कित्ता कंजूस है- मुझे बाहर भी नहीं निकलने देता। धीमा पाद सुस्त व्यक्तित्व की निशानी है।
पाद एक ऐसी चीज है- जिसे पास करने में न पैसे लगते हैं न अतिरिक्त भार सहना पड़ता है। बस जरा-सा अपने पिछवाड़े को कष्ट देना होता है। लेकिन इंसान इसमें भी सियानापन दिखला जाता है। यों, जीवन में तमाम तरह के कष्ट-तकलीफें झेल लेगा लेकिन पादने की बारी जब आएगी तो पिछवाड़े उठाके ही नहीं देगा। कैसे-कैसे लोग होते हैं दुनिया में। मतलब, फ्री का सुकून लेने में भी उनकी नानी मरती है।
मुझे याद है, एक दफा खुशवंत सिंह ने पाद पर बड़ा ही रोचक प्रसंग लिखा था अपने स्तंभ में। मित्र के साथ एक रात अपने कमरे में बीताने पर उन्हें पाद का जो अनुभव हासिल हुआ था- वही दर्ज था। साथ ही, यह भी लिखा था- दुनिया में सबसे खराब अमेरिकनस ही पादते हैं। उनके पाद बेहद बदबूदार और नापाक होते हैं। पाद ऐसा होना चाहिए जिसमें आवाज के साथ-साथ कुछ महक भी हो।
खैर, मैं इस बात का खास ध्यान रखता हूं कि चाहे अपने बिस्तर पर किसी भी तरह का पाद लूं मगर पब्लिस प्लेस में हमेशा महकदार ही पादूं। अधिक जोर से नहीं शालीनता के साथ पादूं। अमूमन, धड़ाम-बड़ाम वाले पादों से बचता हूं। मगर हां जब घर में या फिर व्यंग्य लिख रहा होता हूं, तो खूब मस्त और तरह-तरह की आवाजों के साथ पादता हूं। मेरा कमरा मेरे पादों की महक से महका रहता है हमेशा।
हालांकि मेरी पत्नी को मेरा यों पादते रहना पसंद नहीं। पाद पर ही कई दफा बात तलाक तक पहुंच चुकी है। पर क्या करूं, ससुरी आदत ऐसी पड़ गई है कि छुटने का नाम ही नहीं लेती। वैसे मैंने पत्नी को बोल रखा है- जब मैं पादा करूं अपनी नाक में रूमाल ठूंस लिया करो। मगर स्थितियां तब भी काबू में नहीं रह पातीं। फिर भी किसी तरह मना ही लेता हूं।
अब पत्नी क्या जाने पादने का सुख। मुझे पादने से इत्ता प्यार है कि दुनिया का हर सुख इसके आगे बौना लगता है। दावा कर सकता हूं, अगर पाद-प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ा तो जीतूंगा मैं ही।
बहरहाल, पेट, दिमाग और विचार को अगर दुरुस्त रखना है तो प्यारे जमकर पादो। क्योंकि जीवन का असली सुख पादने में ही है।