- करंट इशू:
वैश्विक महामारी कोरोना अपने भयावह रूप पर है ऐसे संक्रमण रोगों से लड़ने की अब हमे वैज्ञानिक तकनीकी के साथ साथ समाजिक तौर तरीको की क्रांति की जरूरत है। क्रांति का तात्पर्य हम यहां मजबूत बदलाव से लेते हैं। करोना बीमारी आई और हमें तमाम तरह के शलीके भी सिखाई चाहे वो वैज्ञानिक तौर तरीके हो या समाजिक भयावह की भयावहता, दोनों से हम मात खा गए, अब हमारे बीच एक ऐसे क्रांति की जरूरत है, जो हमें मानसिक ताकत प्रोटीन दे, यू तो महामारीयो का दौर तो हमने बहुत सुने है, ऐतिहासिक तौर पर देखें तो तकरीबन ठीक 100 वर्ष पहले हमारे भारत में 1918 से 1920 के बीच एक पल जो बड़ा भयानक आया था, उसका नाम स्पेनिश पलू था जिसको हम उन दिनों बाम्बे फ्लू के नाम से ज्यादा जाने, इस नाम की भी एक सत्य कहानी है, अंग्रेजों की हुकूमत में ब्रिटेन से चला सैनिकों से भरा जहाज बाम्बे पहुँचा उसके कुछ सैनिक इस फ्लू से संक्रमित थे इसको प्इसी के कारण नाम बाम्बे फ्लू भी जाना गया।
उस समय हमारी पूरी आबादी देश की तकरीबन 25 करोड़ की थी, जिसमें पौने दो करोड़ लोग लोग उस काल के गाल में समा गए थे, उसके बाद और भी कई बीमारियां आई उसमें सबसे ज्यादा छुआछूत वाली बीमारी एक टीवी भी आई,ये भी काफी हद तक संक्रमण हो गई थी , जैसे कि अगर परिवार में किसी को हो गई तो उसके खाने पीने का अलग बर्तन, रहने की दूसरी जगह, दूर से बात करने का परहेज इत्यादि यही नहीं अगर किसी जीवन संगिनी पति पत्नी में से किसी को हो गई तो यही समाज मे उन दिनों जन्मों-जन्मों के साथ कसम खाने वाली मान्यता भी इससे उनकी चकनाचर हो गई थी, दूरियां बहुत दूर की हो गई थी।
आज भी हमारे देश में प्रतिवर्ष तकरीबन 10 लाख लोग इसके संक्रमण के शिकार होते हैं परंतु हमने इसके इलाज:के लिए तमाम प्रबंध कर लिए टीके! दवाओं का कोर्स इत्यादि से लोग ठीक होने लगे आपसी दूरियां खत्म हो गई ऐसे लोगों से क्योंकि हमने सामाजिक और वैज्ञानिक क्रांति पैदा की इसे दूर भगाने में। वक्त का तकाजा है कि अब हम और हमारा समाज करोना से जूझ रहा हैं। गौरतलब है ऐसी कई बीमारियां उस समय की छुआछूत वाली वायरस थी, तब हमारे पास बहुत सारे संसाधन नहीं थे पिर भी हम ठीक हए अमन चैन हुआ सामाजिक दूरियों से हम नजदीक हो गए। आज हमारे पास संसाधन बहुत हो गए हैं लेकिन कभी-कभी हम उसके शिकार भी हो जाते हैं अंग्रेजी में हम इससे पैंडमिक और इंफेडेमिक शब्दों से जाने तो पैंडमिक तो वायरस है जो बिल्कुल सत्य है और इससे बचना चाहिए, सारे वैज्ञानिक तौर तरीके इस वैज्ञानिक युग में इस से बचाव के लिए अपनाना चाहिए,तो वही इंफेडेमिक जो शब्द है जिसे हमे गलत सूचनाओं की महामारी कह सकते है।
आज हमें इससे सख्ती और बड़ी सावधानी से समझ से बचने की जरूरत है। क्योंकि यह आज हर हाथ में है, वो झुनझुना जो इसकी गलत सूचनाओं व दुरुपयोग की महामारी से ना जाने कितनी जगह दगे हो गए, लोगों की जाने चली गई, आपस के अपने लोग जाने गवा बैठे अनेको घटनाएं देखने को मिली है। जबकि उसकी सत्यता देखी जाए तो कुछ और पाई गई। अब करोना पर ही देखे तो बिना, जानकारी और बिना साक्ष्य के जानकारियां! एक दूसरे से आदान प्रदान हो रही है।
वाट्सप वैज्ञानिकों की लंबी चौड़ी फौज आजकल बनी हुई है। सत्य सत्य को पराजित कर रहा है तो वही झूठ सब को पराजित कर रहा है। हमें इससे दूर रहना पड़ेगा। इस करोना भयावह मे तो वही सूचनाओं की महमारी भी इस समाज को निगलने लगी ए जाने बेशक बहुत चली गई,मौते हुई हम बहुत बुरी तरह से प्रभावित भी हुए जैसा कभी सोचा भी ना था परंतु अब हमें एक दूसरे को मिठास की खुराक देनी होगीए हमें इससे भागना नहीं होगा स्वरूप अपने ठीक करने होंगे, सोच बदलने पड़ी दूरियां नजदीकियों में लाना होगा। हम संक्रमित हुए हैं बेशक लेकिन वही भ्रमित भी हुए,जो नहीं होना था। तो ये हमारे अच्छे सुलभ संसाधन का प्रयोग भी माना जा सकता है।
हमारे सामाजिक क्रांति का मतलब ये नहीं जो किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था द्वारा चुनी गई सरकारों के प्रति क्रांति लाने की हो और ना ही किसी सरकारी संगठनों के विरुद्ध, हम यहां क्रांति का उद्देश वो नहीं रखते,हमारे सामाजिक क्रांति का सूत्रपात चेतन प्रयत्नों के द्वारा किया गया परिवर्तन है। एक सदी पहले जब ऐसी ही मुसीबत सामने आई थी तब नागरिक समाज बड़ी भूमिका निभाई जो एक क्रांति जैसी ही थी, आखिरकार गैर सरकारी संगठनों और स्वयंसेवी समूह ने आगे बढ़कर मोर्चा संभाला था।
बेटे-छोटे समूहों में लोगों ने कैंप बनाकर लोगों की सहायता की थी। पैसे इकट्ठा किए गए कपड़े व दवाइयां बांटी गई। नागरिक समूहों ने मिलकर कमेटियां बनाई आज भी जब एक बार ऐसी ही मुसीबत सामने मुंह खोल खड़ी है तो वहीं सरकारी व्यस्था सुस्त नहीं हैसरकार चुस्ती के साथ इसकी रोकथाम में लगी हुई है। लेकिन एक सदी पहले जब ऐसे ही मुसीबत आई थी तो नागरिक समाज ने क्रांतिकारी रूप लेकर बड़ी भूमिका निभाई थी अभी संक्रमण का दौर आगे भी है।
हमें उन चुनौतियों का सामना मिलकर करना होगा जिससे हमें जल्दी निजात मिले। और अगर 21वी सदी की बात करे तो संचार की क्रांति तो आई पर वहीं दुखदायी भी रही उस समय देश के माने जाने उद्योगपति स्वर्गीय श्री धीरूभाई अम्बानी ने नारा दिया था कि दुनिया मेरी मुट्ठी में तो कही हम यह दूरसंचार माध्यम कराने वाले झुनझुने का शिकार तो नहीं हो रहे है या इस का दुरुपयोग गलत तो नही कर रहे है या इसका प्रयोग प्रचलन परिचालन कहीं हमें सिकोड़कर बाँध तो नहीं रहा है ये देखना होगा समझना होगा नहीं तो इसका परिणाम ये होगा कि हमारा दायरा छोटा हो जाएगा और तब हम सिर्फ मुट्ठी भर रह जाएंगे। – चंद्र किशोर शर्मा