डॉ दिलीप अग्निहोत्री
भारतीय दर्शन में पूर्ण भक्ति की बहुत महिमा बताई गई। कहा गया कि सम्पूर्ण समर्पण भाव की भक्ति से प्रभु प्रसन्न होते है। राम चरित मानस की चौपाई है-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा। मोहि कपट छल छिद्र न भावा।।
गोस्वामी तुलसीदास ने पांच प्रकार की भक्ति का वर्णन करते हैं। पहली चातक श्रेणी की भक्ति है। दूसरी कोकिल ये प्रभु का गुण गाने वाली भक्ति है। कीर माला रटने वाली,चकोर दर्शन की अभिलाषी भक्ति है। आनंद मगन होकर मोर की तरह नाचने वाली भक्ति है। अहंकार के कारण लोग प्रभु को पहचानते नहीं है। तब भगवान स्वयं अपने भक्त के अंधकार रूपी अहंकार दमन करते हैं।संत अतुल कृष्ण जी अनेक कथाओं के माध्यम से अहंकार के परित्याग को ओंकार के लिए अपरिहार्य बताते हैं. पहले व्यक्ति की आयु जब सौ वर्ष मानी गई थी अखिरी के पचास वर्ष की उम्र में वान्यप्रस्थ और सन्यास की व्यवस्था थी। आज न तो समान्य वर्ष आयु सौ वर्ष की हो रही न ही आश्रम व्यवस्था पर अमल किया जा सकता है। जीवन की धर्म अर्थ काम, मोक्ष जैसी व्यवस्था होती है। धर्म पहले भी था आज भी है। मानव जीवन का लक्ष्य भोग नहीं है। केवल मोक्ष की ओर बढ़ना ही मानव जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। इसके लिए धर्म पहले आया फिर अर्थ कमाया जाए वह भी धर्म के अनुसार भौतिक संसाधन धर्म के अनकूल हो, मोक्ष सन्यास की अवस्था में वन जाने की न परिस्थितिया न इसकी कोई अवश्यकता है।
वर्तमान न तो नदियों का जल निर्मल बचा है। न वनों में फल फूल कंदमूल भी न रह गये। ऐसी अवस्था में क्या करें। इक्यावन, फिफ्टी वन, वृन्दावन तीनों की तुकबंदी नजर आती है। इन तीनों शब्दों की बात समान है। तीनों के आखिरी में वन शब्द है जैसे इक्यावन वर्ष की अवस्था में पुरुष या नारी प्रवेश करे तो वह अपने मन को वृन्दावन को बनाने का प्रयास करे।इसका तत्पर्य है कि वह ग्रहस्थ जीवन में बना रहे। इसमें कोई कठिनाई नहीं है। वह अपना व्यवासय , नौकरी अजविका चलाता रहे। लेकिन इन सबका मोह माया त्याग करके वह अपने मन में इश्वर की आराधन करे तो बिना कहीं जाए वह मोक्ष की लक्ष्य की ओर बढ़ता रहेगा। अहंकार भाव छोड़कर भक्ति की राह में सच्ची सेवा करने से भगवान मिलते हैं। माता कौशल्या सभी भाव को त्याग कर राम के पीछे दौड़ी। इससे उन्हें भगवान राम मिले। इसी तरह भगवान की भक्ति में दौड़ने से वे मिलेंगे ।
उन्होंने भगवान राम के बालपन की कथा में बताया कि एक बार राजा दशरथ ने उद्यान में खेल रहे बालक राम को बुलवाया। उस समय उन्हें सुमंत ने कहा कि राजा ने आपको बुलवाया है। ये सुनकर वे नहीं आए। तब माता कौशिल्या उन्हें लेने गई। उनकी पुकार सुन वे कौशिल्या की परीक्षा लेने लगे। इस पर वे सभी बातों को भूलकर भगवान की ओर दौड़ी। भगवान भावना और स्नेह से वश में आते हैं। जैसे वे कौशिल्या के वश में थे। आत्मा और शरीर का मिश्रण ही जीवन है।
आत्मा भगवान है तो शरीर संसार है। इस वजह से सांसारिक कर्म में मोह का त्याग करते हुए आत्मा के पोषण का भी ख्याल रखना चाहिए। आत्मा का पोषण भक्ति और आराधना है। मनुष्य को दोनों को बेहतर बनाने की दिशा में कदम बढ़ाना चाहिए। तभी जीवन सार्थक बनेगा। इसके साथ ही उन्होंने भगवान राम,भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न के नाम की महिमा के बारे में कहा कि उनके नामों का जाप करने से सभी सुखों की प्राप्ति होती है। भारत और भारतीय संस्कृति में स्त्रियों का स्थान सर्वोच्च है। हमारे धर्म ग्रंथों में भी इस बात को प्रमुखता से कही गई है। ब्रह्माजी ने स्त्री को अपने बाएं अंग से बनाया और पुरुषों को दाएं अंग से। इस वजह से दोनों भगवान की दृष्टि में एक समान हैं। बाएं अंग में दिल होता है, इससे माताएं हमेशा ही भावनाओं को प्राथमिकता देती हैं।
पुरुष तर्क शक्ति को महत्व देता है. प्रभु रस के सागर है. रास में सम्मलित होने वाले परम भाग्यशाली होते हैं गोपियां महा भाग्यशाली थीं.प्रभु के साथ हजारों गोपियां नृत्य करती हैं. सभी को लगता हैं की श्री कृष्ण उनके साथ हैं.
गोपियों को अहंकार हुआ कि कृष्ण उनके साथ हैं. यह अहंकार हुआ, ओमकार वहाँ नहीं रहते. प्रभु श्री कृष्ण और राधा जी अन्तर्ध्यान हो गए.अहंकार आह में परिवर्तित हो गया.
उबारा था जिस हांथ ने जीव गज को उसी हांथ का अब हूंनर देखना हैं. गोपियों ने रोते हुए उन्नीस श्लोक गाए. आंसुओं से मन का गुबार निकल जाता है. जब से गोकुल में प्रभु अवतरित हुए तब से यहां लक्ष्मी जी की कृपा है. श्रेय की प्राप्ति होने लगी है. अष्ट और नव सिद्धियां बिना पुरुषार्थ के सुलभ होने लगी है.
प्रभु की लीला दैहिक दैविक भौतिक ताप को शांत कर देती है. विचारों की विकृति का निवारण हो जाता है. कथा के श्रवण से अमंगल दूर हो जाते हैं. गोपियों का अहंकार दूर हो गया.गोपियां भक्ति की श्रेष्ठ प्रतीक है. उद्धव जी ने गोपियों की चरण रज को पवित्र माना.क्योंकि भक्ति में विलाप करती है नारद जी ने कंस को सलाह दी कि कृष्ण ही अवतार है. छह महिने के थे तब पूतना को समाप्त कर दिया. एक वर्ष में तीन राक्षस मार दिए थे. नब्बे वर्ष बाद यशोधा से मिले थे. महाभारत के समय श्री कृष्ण की अवस्था छियासी वर्ष थी. प्रेम का वास्तविक अर्थ निकट रहना मात्र नहीं होता. प्रभु श्री कृष्ण ने कभी यह प्रकट नहीं होने दिया कि गोकुल वृंदावन के लोग उनके प्रिय है. लेकिन वह गोकुल वृंदावन के लोगों की सुरक्षा चाहते थे. उन्हें अनेक दुर्जनों को समाप्त करना था.
कंस की योजना श्री कृष्ण को मथुरा बुलाने की थी. उसने अक्रूरजी को वृंदावन भेजा था.प्रभु राम पुष्प वाटिका में गए थे, वहाँ एक मोर ने नाचते हुए अपने सभी पँख गिरा दिए थे. तब लक्ष्मणजी ने एक मोर पँख प्रभु राम को दिया था. उन्होंने कहा था कि इस मोर ने प्रभु के समक्ष अपना सर्वस्व समर्पण किया है. प्रभु के लिए जो समर्पण करते हैं, वह प्रभु के प्रिय हो जाते हैं. इसीलिए जब उन्होंने कृष्ण रूप में अवतार लिया, तब मोर पँख धारण किया. उज्जैन के गुरुकुल में श्री कृष्ण अध्ययन के लिए गए. प्रभु चौसठ दिन में चौसठ कलाओं को सीख गये .सान्दीपनि
गुरु थे.दीक्षांत में परशुराम आए थे. उन्होने श्री कृष्ण को सुदर्शन चक्र दिया. कहा कि जब श्री राम के रूप में आए थे तब धनुष दिया था.
प्रभु श्री कृष्ण सवा सौ वर्ष अवतार रूप में रहे. इसमें उद्धव जी एक सौ तेरह वर्ष प्रभु श्री कृष्ण के साथ रहे थे.तीसरा नेत्र सभी मनुष्यों के होता है. दो नेत्र आसक्ति और काम को बढ़ाते हैं.
तीसरा नेत्र ज्ञान वैराग्य चिंतन का होता है. प्रभु शिव की कृपा से यह सम्भव हो सकता है.
तीसरे नेत्र से काम को भष्म किया जा सकता है. शिव जी ने कामदेव की पत्नि को वरदान दिया था कि तुम्हारे पति बिना शरीर के रूप में रहेंगे. फिर श्री कृष्ण के पुत्र रूप में जन्म लिया.
धर्म के अनुरूप काम देवत्व की ओर ले जाता है. धर्म विहीन काम मनुष्य को असुर बना देता है. प्रभु श्री राम जी जटायू से कहते हैं कि तुमको सद्गति अपने श्रेष्ठ कर्मों से ही मिल रही है. इसमें मेरी कोई कृपा नहीं है. मनुष्य को छोड़ कर अन्य सभी जीवों का जन्म भोग के लिए होता है. विवेक के साथ कर्म की क्षमता केवल मनुष्य के पास है. इसलिए उसे धर्म के अनुरूप कर्म करना चाहिए. गंगा जी भक्ति,यमुना जी कर्म सरस्वती जी ज्ञान की प्रतीक है. द्वारिका के राजा उग्र सेन थे. लेकिन श्री कृष्ण जन मानस के ह्रदय पर राज करते हैं. इसलिए वह द्वारिकाधीश कहलाए. वानरों के राजा सुग्रीव थे. लेकिन जन मानस पर हनुमानजी का राज था. पूजा उन्हीं की होती है.
विरक्ति का तात्पर्य कर्म का परित्याग नहीं है. परित्याग तो अहंकार का करना चाहिए. कर्म करता रहे, लेकिन अपने कर्म प्रभु को समर्पित करता रहे. इसके बाद जो भी फल मिले उसे प्रभु का प्रसाद मान कर ग्रहण करे. सुदामा को प्रभु पर पूर्ण विश्वास है. निर्धनता अभाव से विचलित नहीं होते. प्रभु उनके मित्र है. उनसे भी कुछ नहीं मांगते. सुदामा की पत्नि ने कहा कि उत्तम श्लोक अर्थात प्रभु के दर्शन का भी लाभ मिलता है.