एक बार एक राजा अपने मंत्री और सेवक के साथ वन-विहार को गया। बड़ा हरा-भरा रमणीक वन था। सघन वृक्षों के बीच जलाशय थे। पशु निर्भय होकर विचरण कर रहे थे। राजा वहां की दृश्यावली को देखकर मुग्ध रह गया। तभी उसे थोड़ी दूर पर एक हिरण दिखाई दिया। राज ने अपना घोड़ा उस ओर बढ़ा दिया। हिरण ने यह देखा तो उसने चौकड़ी भरी। उसका पीछा करने के लिए राजा ने अपने घोड़े के एड़ लगाई। दौड़ते-दौड़ते राजा बहुत दूर निकल गया। उसे थकान हो गई और वह उस स्थान की ओर बढ़ा, जहां अपने मंत्री और सेवक को छोड़ आया था।
उधर राजा बहुत देर तक नहीं लौटा तो मंत्री ने सेवक से कहा कि जाओ, राजा को खोजकर लाओ। सेवक चल दिया। थोड़ी दूर पर एक अंधे साधु अपनी कुटिया के बाहर बैठे थे। सेवक ने कहा, ओरे अंधे, इधर से कोई घुड़सवार तो नहीं गया? साधु बोले, मुझे पता नहीं। जब काफी देर तक सेवक नहीं लौटा तो मंत्री को चिन्ता हुई और वह राजा की खोज में निकल पड़ा। संयोग से वह उसी साधु की कुटिया पर आया और उसने पूछा, ओ साधु, क्या इधर से कोई गया है? साधु ने उत्तर दिया, हां मंत्रीजी, अभी यहां होकर एक नौकर गया है। मत्री आगे बढ़ गया। कुछ ही क्षण बाद स्वयं राजा वहां आया। उसने कहा, ओ साधु महाराज, इधर से कोई आदमी तो नहीं गये।
साधु ने कहा, राजन, पहले तो इधर से आपका नौकर गया, फिर आपका मंत्री गया और अब आप पधारे है। इसके पश्चात जब तीनों मिले तो उन्होंने उस साधु की चर्चा की। सबको आश्चर्य हुआ कि नेत्रहीन होते हुए भी साधु ने उन्हें कैसे पहचान लिया। वे साधु के पास गये और अपनी शंका उनके सम्मुख रखी।
साधु ने मुस्कराकर कहा। आप सबको पहचानना बड़ा आसान था। आपके नौकर ने कहा, ओरे अंधे, मंत्री ने कहा, ओ साधु, और आपने कहा, ओ साधु महाराज। राजन आदमी की शक्ल-सूरत से नहीं, बातचीत से उसे वास्तविक रूप का पता चलता है। आपके संबोधनों से आपको पहचानने में मुझे कोई कठिनाई नहीं हुई। साधु की बुद्धिमानी की सराहना करते हुए तीनों वहां से चले गये।