एक ग़ज़ल
लेकिन माँ का छुप -छुप रोना
कुछ अजीब – सा लगता है
अभिशापों का स्वप्न सँजोना, कुछ अजीब – सा लगता है ।
विषधर का सन्यासी होना, कुछ अजीब – सा लगता है।
ख़ुद को मोम किया तो पाया–ढोने को बस आग मिली,
कुदरत का ये जादू – टोना, कुछ अजीब – सा लगता है।
अपनी ही ख़ुद हत्या करने पर आमादा हैं ‘ फ़सलें ‘ ,
‘मौसम ‘ का कुंठाएँ बोना, कुछ अजीब – सा लगता है।
नहीं मिले थे तो किस्मत को कोस लिया करते थे हम ,
मगर तुम्हें अब पाकर खोना, कुछ अजीब -सा लगता है।
यूँ तो उसने हँसकर भेजा रोजी – रोटी की ख़ातिर,
लेकिन माँ का छुप – छुप रोना, कुछ अजीब-सा लगता है।
तुमने ही तो सरगम चुनकर, दिये शब्द सन्नाटों को,
क़लम ! तुम्हारा रोना -धोना, कुछ अजीब – सा लगता है।
फूल तलक पत्थर दिल जिसमें उस पत्थर की दुनिया का-
भावुक होकर आँख भिगोना, कुछ अजीब – सा लगता है।
- कमल किशोर ‘ भावुक ‘