भुट्टे
भादों की शाम
एक ठेली पर
जलते कोयलों की
मद्धिम-सी आँच में
भुट्टे भूने जा रहे थे
उन पर नींबू-नमक लगाकर
दुकानदार पेश करता था
अनमोल तोहफ़े की मानिंद
कहते हुए :
जो इस भुट्टे को तोड़कर सूँघ ले
उसे कोरोना नहीं हो सकता
लोग अपनी बारी के इंतिज़ार में
उसे देखते थे
देवदूत की तरह
एक नौजवान अपनी बाइक पर बैठा
मक्का के ताज़ा भुने दूधिया दाने कुतरता था
जैसे वही दुनिया का सर्वश्रेष्ठ व्यंजन हो
तभी मैंने देखी एक गाय
ठेली के पास सिमट आयी थी
चुप-चुप निहारती हुई भुट्टों को
भलमनसाहत से भरी
भीगी आँखों से
गोया अपनी निःशब्दता में
उम्मीद करती हुई :
इस सृष्टि में शायद
उसका भी कुछ हिस्सा हो
– पंकज चतुर्वेदी