मैं किताबों की समीक्षाएँ करता रहा,
जीवन की समीक्षा उपेक्षित रही।
घटिया लेखक निकल गए,
घटिया समीक्षकों की गाड़ियों में।
बेटिकट झगड़ता रहा मैं,
सारी निकासियों पर।
सवेरा बहुत दूर है—
दुःस्वप्नों का अतीत लिए हुए।
कई रोज़ से,
कुछ पढ़ने की कोशिश कर रहा हूँ,
लेकिन सिर का दर्द रोक लेता है।
समीक्षको, सिर्फ़ तुम ही जानते हो वजह इसकी !
- अविनाश मिश्र