आमतौर से टीवी मीडिया के बड़े चेहरों का ताल्लुक दिल्ली-मुंबई या नोएडा से होता है। एक धारणा है कि बड़े बनने के लिए बड़े-बड़े शहरों में बसना पड़ता है। देश-दुनियां की नज़र में कमाल ख़ान सहाफत की दुनिया का बड़ा ही नहीं बल्कि बेमिसाल चेहरा थे। कमाल ये है कि वो टीवी चैनलों के हब दिल्ली-मुंबई या नोएडा में पोस्टिंग के बिना लखनऊ रहकर भी टीवी मीडिया के सुपर स्टार बने रहे। अस्सी के दशक में उन्होंने लखनऊ के मशहूर-ओ-मारूफ अखबार अमृत प्रभात से अपनी पत्रकारिता की शुरुआत की थी। फिर इसी शहर में नवभारतटाइम्स और उसके सांध्य संस्करण में रिपोर्टर रहे। 1995 के बाद एनडीटीवी के यूपी ब्यूरो की जिम्मेदारी संभालने के दौरान क़रीब पच्चीस साल तक लखनऊ में रहे। वो न सिर्फ एनडीटीवी का बल्कि देश की टीवी पत्रकारिता का कमाल बनके लोगों के दिलो-दिमाग में छाए रहे।
उसकी भाषा-शैली, अल्फ़ाज़ और अंदाज लखनऊ की खूबियों से इसक़द्र मालामाल था कि जो एक बार उनकी खबरों की पेशकश को सुन-देख लेता था वो उनका दीवाना हो जाता था। उनकी ख़बरों की स्क्रिप्ट और हर अल्फ़ाज़ की मिठास में लखनऊ बसा था। निजी जीवन में भी उनके लबों से कभी तुम जैसा लफ्ज़ नहीं निकला। दोस्त,यार, छोटे-बड़े, अपने-पराए यहां तक कि वो अपने ड्राइवर, चपरासी, नौकर, कैमरा अटेंडेंट, शागिर्द से भी कभी तुम कहकर बात नहीं करते थे। हर कोई उनके लिए आप था।
मौजूदा लखनऊ में तो अदब और तहज़ीब वाले लखनऊ का एक तसव्वुर ही बचा है, लेकिन दुर्भाग्य कि लखनऊ के कमाल की हक़ीक़त समेटे कमाल ख़ान जैसी शख्सियत भी आज चली गई। पहले मैं..पहले मैं.. की जल्दबाजी और हड़बड़ाहट में टीवी पत्रकारिता बहुत बदसूरत और बैतहज़ीब सी दिखती है। लेकिन कमाल ख़ान साहब की रिपोर्टिंग और पीटीसी
(आउट डोर कैमरे पर लाइव बोलने को टीवी पत्रकारिता की जुबान में पीस टू कैमरा कहते हैं।)
में पहले आप जैसा लखनवी अंदाज, तहज़ीब, जुबान, शाइस्तगी, इत्मेनान, नज़ाकत और नफासत के रंग खिलते थे। उनकी ख़बरों और लहजे में ज़रा भी हड़बड़ी नहीं दी। वो सबसे अलग थे। टीवी पत्रकारिता के सारे पहले मैं..पहले मैं..वाले हर हड़बड़ीबाज की खबर कमाल भाई की ख़बरों की अदायगी के आगे फीकी पड़ जाती थी।
मुझे याद है एक दफा मैंने एक मज़मून लिखा था, जिसका शीर्षक था- कमाल की पत्रकारिता। उसके बाद जब उनसे मुलाकात हुई तो बस इतना बोले- आपका कंटेंट और स्क्रिप्ट भीड़ से अलग होती है। डिबेट में भी आप अच्छा बोलते हैं। लेकिन लिखना जारी रखिएगा। अच्छा बोलने के लिए अच्छे अल्फाज का ख़ज़ाना होना ज़रूरी है। ज्यादा लिखने-पढ़ने से ही दिमाग़ में शब्दों का शब्दकोश तैयार रहता है।
इसी तरह एक वाकिया और है। कमाल साहब के एक दोस्त है सुशील दुबे। उन्होंने लखनऊ के पांच-सात चर्चित पत्रकारों को सम्मानित करने का एक आयोजन किया। उसमें कमाल भाई जैसे लोगों में मुझे भी शामिल होने का शरफ हासिल हुआ था।
सम्मान समारोह मे़ मेहमानों की मेहमाननवाजी में दुबे जी इधर उधर भागते-दौड़ते दिखाई दे रहे थे। देख कर कमाल साहब बोले- पता नहीं क्यों जल्दीबाजी मचाएं हैं दुबे जी। जल्दबाजी से हड़बड़ाहट पैदा होती है और हड़बड़ाहट बदहवास कर देती हैं।
आज कमाल साहब के वो अल्फ़ाज़ ही उन्हें नज़्र करते हुए उनसे पूछना चाहता हूं- आपने जाने में क्यों इतनी जल्दबाजी कर दी !
ख़िराजेअक़ीदत
– नवेद शिकोह