राहुल कुमार गुप्ता
इंसान विवेकशील होता है और उसमें इंसानियत होती है इसीलिए वो ईश्वर की सर्वोत्तम कृति है। इसी विवेक और इंसानियत के कारण वो अन्य कोटि-कोटि जीवों से भिन्न होता है। पर वही इंसान जब किसी भी प्रकार के स्वार्थवश (यहां तक कि अंधभक्ति भी, वो भले ही ईश्वर की ही क्यों न हो) अपनी ये विवेकशीलता और इंसानियत को खो देता है तो वो ईश्वर के इस उपहार स्वरूपी विवेक और इंसानियत का माखौल उड़ाता है।
वो इंसान होने के गुण को मार कर इंसान रूपी भेष में जानवर ही रहता है। गीता में श्री कृष्ण ये बात अर्जुन को बताते हैं कि इंसान एक मार्ग भी है उस करतार तक पहुंचने का। इसके अलावा कोई और मार्ग नहीं। और यह बात सत्य के करीब भी। हकीकत की तरफ कोई नहीं जाना चाहता, एक ही ढर्रे में सब चलना चाहते हैं। गीता में कृष्ण जी ने खुद कह रखा है, जो तर्कसंगत है वही विज्ञान है वही धर्म है। लेकिन तर्क और कुतर्क दोनों में अंतर है। लोगों में कुतर्क की ओर आकृष्ट होने की प्रवृत्ति ज्यादा है। इसलिए तमाम धर्मों और मजहबों में अंधभक्ति का ही ज्ञान दिया जाता है, क्योंकि ये कुतर्क से तो बहुत ही ठीक है। लेकिन तर्क तक पहुंच कर सत्य को पा लेना ही एक मात्र लक्ष्य है। विज्ञान सत्य की खोज का एक प्रयास है जो की परत दर परत सुलझता और उलझता रहता है। अपने ही सत्य को पुनः असत्य कर नया सत्य स्थापित करता रहता है लेकिन विज्ञान में निरंतरता रहती है तर्क शक्ति रहती है, इसलिए वो नए नए आयाम स्थापित कर दुनिया को चकाचौंध करता रहता है।
विज्ञान के क्षेत्र में सत्य फिर भी न अंतरिम हो पाया न अंतिम। सभी वैज्ञानिक नहीं हो सकते फिर भी विज्ञान का लाभ सबके लिए है। इधर धर्म, मजहब और पंथों में भी उनके ग्रंथों में जो बातें बोल दी गईं उसे ही अपने आराम और स्वार्थ अनुसार मानने की कोशिश करते हैं। जबकि सत्य यहां भी पूर्ण रूप से खोजा नहीं जा चुका। कई मुनिश्रेष्ठ, अवतार, पैगंबर आदि महान लोग सत्य के करीब पहुंचे होंगे। हमारे पास इन सब महान आत्माओं का अनुभव है फिर भी इस क्षेत्र में हम इनका अनुभव भी सही से नहीं ले सकते। न इस क्षेत्र में नया कुछ हो पाता है। क्योंकि लगता है सब कुछ तो खोजा जा चुका है, सबकुछ तो है। इस क्षेत्र में सत्य की खोज बंद सी हो चुकी है। सत्य की खोज की निरंतरता इस क्षेत्र में उस तरह बिलकुल नहीं जिस प्रकार से विज्ञान के क्षेत्र में है। हां ! इस क्षेत्र में तमाम आडंबर धारी जरूर दिखते हैं जो आमजन को बेवकूफ बना कर अपना उल्लू सीधा करते हैं। धर्म और अध्यात्म का क्षेत्र भी सत्य को खोजने के लिए ही है। यह मार्ग सबके लिए सहज है। किंतु यह विज्ञान की अपेक्षा बहुत सरल होते हुए भी बहुत कठिन है। क्योंकि शरीर और भौतिक वस्तुओं का आकर्षण (माया) इतना अधिक है की लोग इस सहजता को भी ग्रहण नहीं कर पाते। विज्ञान सबके लिए नहीं है। विज्ञान कुछ लोगों को ही समझ आता है। विज्ञान जहां जीवन में भौतिक खुशियों का उत्तरदायी होता है वहीं धर्म और आध्यात्म मानसिक और आत्मिक खुशी का। लेकिन फिर हम खुशी के आकर्षण में अर्ध सत्य तक आकर पूर्ण विराम कर लेते हैं। पूर्ण विराम की ये क्रिया धार्मिक और आध्यात्मिक क्षेत्र में ही बहुतायत से है। जबकि विज्ञान के क्षेत्र में विराम की प्रक्रिया है। विराम करना या लेना ही बेहतर है। पूर्ण विराम तो ईश्वर से पूर्ण मिलन के बाद ही संभव है।
ईश्वर से मिलन कैसे संभव हो? यह इस धरा का सबसे गूढ़ प्रश्न है। इसके उत्तर के लिए ही सब प्रयासरत थे हैं और रहेंगे। हां! इन प्रयासरतों की संख्या में किसी दौर में अधिकता तो किसी दौर में न्यूनता बनी रहती है। ईश्वर को पाने के कुछ राह तमाम धार्मिक ग्रंथों में बताए गए हैं। जो सबके लिए पूर्ण सत्य नहीं हैं हैं! कुछ के लिए वो पूर्ण सत्य हैं और कई लोगों के लिए वो सत्य के करीब है। तो कुछ के लिए वो केवल शब्द हैं।
अध्यात्म और विज्ञान दोनों की राहें तो बड़ी कठिन हैं लेकिन इन दोनों राहों में मानव समाज के उन तमाम बुद्धिजीवियों को कदम बढ़ाते ही रहना है जो इन क्षेत्रों में अपनी समझ विकसित कर चुके हैं। इन सबके अलावा हम सबको भी सेवा, मानवता और प्रेम का भाव लिए अपने कर्म क्षेत्र में अग्रसर रहना चाहिए। विज्ञान (तर्क), अध्यात्म, निरंतरता, इंसानियत, प्रेम आदि इन ईश्वरीय गुणों को धारण कर निर्मल मन के निर्माण से ही ईश्वर को पाने का मार्ग सहज और सरल हो सकता है। यह कितने प्रयास में संभव है प्रत्येक के लिए इसका मानक भी अलग अलग ही है। किसी को कम प्रयास में तो किसी को जन्मों के प्रयास में। ये जो कम प्रयास में सफलता का शिखर दिखता है ये भी वास्तव में जन्मों के प्रयास ही होते हैं, बस वो आपको इसी जन्म और इसी बार का प्रयास दिखता है। इसलिए वो कम प्रयास समझ में आता है। ईश्वर के पाने के उपर्युक्त वही सेक्युलरिज्म गुण वाले प्रभावों को आत्मसात करना पड़ता है कट्टरता कभी ईश्वर से आपको आत्मसात नहीं करा सकती।
धार्मिक मधांतता को हटाने का काम हर समाज ने अपने में से कुछ लोगों को दे रखा है। पर वास्तव में अब वैसा कुछ नहीं हो रहा जैसा होना चाहिए। अब अधिकतर ऐसे ही अपने अपने समाज के अग्रणी भूमिका में रहने वाले ही धार्मिक मदांधता को बढ़ावा देने में तूले हुए हैं। ईश्वर को पाने के मार्ग में किसी भी हिंसक या मानवीय संघर्ष का कोई भी कारक नहीं हो सकता। धर्म के लिए जो लड़ाईयां लड़ी गई, जो लड़ी जा रही हैं, या जो लड़ी जाएंगी ये ईश्वर के लिए नहीं, न ईश्वर को पाने के लिए अपितु एक जाति या समुदाय का अपने वर्चस्व को स्थापित करने के लिए ये हिंसक वारदातें होती हैं, होती रहेंगी। जब तक की सही जानकारियां लोगों के बीच में नहीं आएंगी। जिस तरह से ब्रम्हांड में, न्याय में, प्रेम में, विज्ञान में, इंसानियत में, ईश्वर में विस्तार की प्रक्रिया है संकुचन की नहीं उसी तरह से धर्म उपदेशों की भी यही सीख होनी चाहिए। कट्टरता या धार्मिक मदांधता में संकुचन है। इस वजह से कट्टरता या धार्मिक मदांधता का जो मार्ग है वो ईश्वर की राह से बहुत दूर ले जाने वाला मार्ग है।