देवेश पांडेय
मशहूर शायर मजाज लखनवी की शायरी में हाजिरजवाबी और प्रगतिशीलता के किस्से हैं। एक बार वह अलीगढ़ मुस्लिम विवि में लड़कियों के बीच शेर पढऩे के लिए बुलाये गये तो उनके और लड़कियों के बीच ब्लैकबोर्ड लगा दिया गया। उस वक्त उन्होंने यह गजल पढ़ी कि
हिजाब-ए-फिनापरवर अब उठा लेती तो अच्छा था।
खुद अपने हुस्न को परदा बना लेती तो अच्छा था।।
तेरे माथे पे ये आंचल बहुत ही खूब है लेकिन।
तू इस आंचल से एक परचम बना लेती तो अच्छा था।।
अब सवाल यह उठता है कि आज जब मानव मंगल ग्रह पर बसने की योजना बना रहा है तो भारत में लड़कियों को उन्नीसवीं सदी की मान्यताएं थोप कर आखिर हम दुनिया को क्या संदेश देने का प्रयत्न कर रहे हैं। हम चाहते हैं कि हमारी बेटी स्कूल-कॉलेज से सीधे घर आये और फिर वो घर में ही कैद होकर रह जाये। हम चाहते हैं कि हमारी बेटियां न तो मोबाइल का इस्तेमाल करें और न ही इण्टरनेट का प्रयोग, फेसबुक और व्हाट्स एप के नाम पर तो हमारी त्योरियां फौरन चढ़ जाती हैं। बाजारों में जाना, रेस्ट्रोरेन्टस में खाना, पार्कों में घूमना और थिएटर्स में फिल्में देखना, बेटियों और बहनों के लिए शायद ही कोई पसन्द करता हो। यह सही है कि आज जमाना खराब है। दूसरे की बहू-बेटियों को कोई अच्छी नजर से नहीं देखता है, लोगों के मन में कहीं न कहीं खोट होती है। लोग किसी भी महिला या लड़की को देखते हैं तो अपनी आंखों से ही उसके शरीर का पूरा का पूरा भौगोलिक विचरण कर डालते हैं। किसी महिला या लड़की का शरीर किसी कारण अचानक कहीं से उघड़ जाये और उस पर हमारी अनायास ही नजर पड़ जाये तो यह बात जुदा है। लेकिन जब हम घूरने वाली मुद्रा में लड़कियों के अंगों को निहारते हैं तो इसके मायने यह है कि खोंट तो हमारे मन में ही है और दोष हम लड़कियों को देते हैं। इसके बाद हम उसे सात तालों में कैद करके रखना चाहते हैं। हां… इतना जरूर है कि महिलाओं और लड़कियों को भी शालीनता के दायरे में आने वाली पोशाकों को पहनना चाहिये क्योंकि यह मानव चरित्र है कि अगर किसी चीज को सिर्फ आधा ढकेंगे या फिर कुछ हिस्सा खुला छोड़ देंगे तो हर व्यक्ति उस वस्तु को पूरा का पूरा देखना चाहता है या पाना चाहता है। यौन अपराध भी यहीं से शुरु होता है। इसे कोई माने या न माने लेकिन यह शाश्वत सत्य है।
यह तथ्य भी उतना ही सत्य है कि बाहर से कहीं ज्यादा घरों के भीतर ही यौन अपराध होते हैं और वो भी करीबी रिश्तेदारों या लोगों द्वारा, इनमें बाप और भाई वाले रिश्ते सबसे ज्यादा खतरनाक साबित होते हैं। यानि महिलाओं और लड़कियों को घर से बाहर तो सजग रहना ही है, उससे कहीं ज्यादा घर के भीतर पुरुष भेष में साथ में ही रह रहे भेडिय़ों से। बाप, भाई, ससुर, जेठ, देवर और बहनोई द्वारा किये गये यौन अपराधों का खुलासा महिलाएं और लड़कियां लोक-लाज के भय से दूसरों के सामने कर भी नहीं पाती हैं। महिलाओं और लड़कियों की इसी तरह की मजबूरियों का फायदा उठाकर करीबी रिश्तों के लोग अपने गन्दे इरादों को निरन्तर अंजाम देते रहते हैं और किसी को इस तरह के अपराध की भनक तक नहीं लग पाती है। कुछ धर्मों के ग्रन्थों में तो बाप-बेटी तक को एकान्त में रहना या शयन करना निषेध माना गया है। जहां इन सारी बातों पर ध्यान दिया जाता है वहां ऐसे अपराधों का प्रतिशत लगभग नगण्य रहता है।
अगर हम चाहते हैं कि महिलाओं और लड़कियों पर जानवरों की तरह का बर्ताव न किया जाये और देश की तरक्की में हम सब के साथ वो भी कदम से कदम मिलाकर हमारा साथ दें, पुरुषों की ही तरह वे भी घर-गृहस्थी का बोझ उठा सकने में भागीदार बने तो हर पुरुष को तथा हर महिला को अपनी सोच और व्यवहार में बदलाव लाना होगा। यौन अपराध करने वालों को कड़ी से कड़ी सजा देनी होगी। समाज को ऐसा बनाना होगा कि कोई ऐसे अपराधों के लिए सोचे तक नहीं। अगर ऐसा नहीं हुआ तो यौन अपराध दिन दूने और रात चौगुने बढ़ते रहेंगे।
महिलाएं इसे अवश्य पढ़े और कमेण्ट लिखकर बतायें कि बात में कहां तक सार्थकता है।
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