डॉ दिलीप अग्निहोत्री


प्राचीन भारतीय शास्त्रों में माता,पिता और गुरु को अति विशिष्ट स्थान दिया गया। इनकी सेवा वन्दन तीर्थ यात्रा से कहीं अधिक महत्वपूर्ण बताई गई। काल चक्र के साथ इनका वियोग भी सहन करना होता है। उस दशा में अनुष्ठानों का वर्णन भी शास्त्रों में है। लेकिन दो तथ्यों पर विचार करना चाहिए। पहला यह कि माता,पिता,गुरु के जीवन काल में उनकी सेवा से बढ़कर कुछ नहीं हो सकता। इसका कोई विकल्प भी नहीं है। यदि उनकी यथोचित सेवा नहीं कि गई,तो बाद में होने वाले अनुष्ठान भी ग्लानि देने वाले होते है। दूसरी बात यह कि धर्म और मजहब में अंतर होता है। मजहब में नियम निर्धारित होते है। उनके बाहर जाने की किसी को अनुमति नहीं होती। हीरानन्द सचिदानन्द वात्सायन अज्ञेय ने भी यही उल्लेख किया था। धर्म सतत जिज्ञाषा से चलता है। हमारे ऋषियों ने भी हरि अनन्त हरि कथा अनन्त कहा। उस अनन्त की कोई सीमा नहीं होती । जिसने जैसा देखा,वैसा लिखा। यह भी जोड़ दिया कि यह अंतिम सत्य नहीं है। युग दृष्टा तपस्वी इस दिशा में आगे बढ़ सकते है।
माता पिता के न रहने पर सनातन पद्धति में तेरह दिन का विधान किया गया। अपनी जगह पर यह भी उचित है। सामान्य व्यक्ति अपनी श्रद्धा से इसपर अमल करता है। लेकिन आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती और गायत्री परिवार के संस्थापक आचार्य श्री राम शर्मा जैसे युगद्रष्टा ऋषियो ने चार दिन का विधान बताया। इन्होंने कोई अलग धर्म मजहब नहीं चलाया। वेदों के आधार पर गहन चिंतन किया। अनुष्ठान, यज्ञ, हवन,तर्पण ,सब कुछ इसमें भी है, लेकिन समय अवधि कम कर दी गई। यह मनमाने ढंग से नहीं होता । इसका भी शास्त्रों के आधार पर ही विधान किया गया।
जब हम धर्म और मजहब के अंतर को समझ लेते है, तो भ्रम की स्थिति समाप्त हो जाती है। इसमें शास्त्र महत्वपूर्ण है, लेकिन कोई बाड़ा नहीं बनाया गया। दोनों ही विधान अपनी अपनी जगह पर महत्वपूर्ण है।
यह सही है कि समय के साथ चार दिन के विधान का प्रचलन बढा है। दोनों में से किसी की भी निंदा नहीं होनी चाहिए। आज समाज में ऐसा भी वर्ग है जिसे चाह कर भी तेरह दिन का अवकाश मिलना आसान नहीं होता। सीमा पर तैनात सैन्य कर्मियों, निजी सेवा में दूर दराज कार्य करने वालों की स्थिति को भी समझना होगा। वह कोई धर्म विरोधी कार्य नहीं कर रहे होते है। अक्सर परिस्थियां विवश करती है। इसके अलावा आर्थिक स्थिति को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। ऐसे में एक दूसरे की निंदा का औचित्य नहीं है।
मुख्य प्रश्न वही है कि उनके जीवन काल में कितनी सेवा की गई। जिन्हें सेवा करने का अवसर मिलता है, वह भाग्यशाली होते है। ऐसे लोग माता पिता को अपने साथ नहीं रखते बल्कि माता पिता के साथ रहते है। लेकिन अब अनेक मामलों में पाश्चात्य सभ्यता संस्कृति का प्रभाव भी दिखता है।
शास्त्र सम्मत अनुष्ठानों की बातों के बाबजूद मदर्स डे ,फादर्स डे का चलन बढा है। मीडिया भी इसमें सहयोगी है। मतलब माता पिता के लिए एक दिन । इसके तहत केक काटने, मोमबत्ती बुझाने, पार्टी करने से ही कर्तव्य पूरे हो जाते है। यह मानसिकता ही वृद्धाश्रम की संख्या बढा रही है। सरकार को भी माता पिता की सेवा के लिए बाध्य करने वाला कानून बनाना पड़ा। इसके तहत अपील भी होती है। यह भारतीय समाज को शर्मिंदा करने वाले दृश्य होते है। मदर्स डे अमेरिका और यूरोप का सबसे प्रमुख व्यवसायिक दिन बन गया है। इसकी शुरुआत वर्जिनिया में एना जारविशह के द्वारा माताओं , मातृत्व, आदि से संबंधित अवकाश हेतु शुरू किया गया था। इसमें व्यवसाय खूब बढा तो फादर्स डे की ओर ध्यान गया। फादर्स डे के पीछे कोई तार्किक आधार नहीं है ।
अमेरिका ने इस पर छुट्टी का कानून बनाया। बाकायदा छुट्टी और इसके व्यवसायिक उपयोग का अभियान चलाया गया। इसकी शुरुआत बीसवीं सदी के प्रारंभ में पिताधर्म तथा पुरुषों द्वारा परवरिश का सम्मान करने के लिये मातृ-दिवस के पूरक उत्सव के रूप में हुई। फादर्स डे को विश्व में विभिन तारीखों पर मनाते है। जिसमें उपहार देना, पिता के लिये विशेष भोज एवं पारिवारिक गतिविधियाँ शामिल हैं। आम धारणा के विपरीत, वास्तव में फादर्स डे सबसे पहले पश्चिम वर्जीनिया के फेयरमोंट में पांच जुलाई उन्नीस सौ आठ को मनाया गया था। अनेक देशों में इसे जून के तीसरे रविवार, तथा बाकी देशों में अन्य दिन मनाया जाता है। यह माता के सम्मान हेतु मनाये जाने वाले मदर्स डे का पूरक है। प्रथम फादर्स डे चर्च आज भी सेन्ट्रल यूनाइटेड मेथोडिस्ट चर्च के नाम से फेयरमोंट में मौजूद है।
प्रेस्बिटेरियन चर्च प्रेस्बिटेरियन चर्च के पादरी डॉ कोनराड ने फादर्स डे मनाने में सहयोग किया। वहां उन्नीस सौ दस में प्रथम फादर्स डे मना कर इसका प्रचार किया। इसे आधिकारिक छुट्टी बनाने में कई साल लग गए।
वायएमसीए, वायडब्लूसीए तथा चर्च के समर्थन के बावजूद फादर्स डे के कैलेंडर से गायब होने का डर बना रहा। जहां मदर्स डे को उत्साह के साथ मनाया जाता वहीं फादर्स डे की हँसी उड़ाई जाती।
छुट्टी को राष्ट्रीय मान्यता देने के लिये सन् उन्नीस सौ तेरह में एक बिल कांग्रेस पेश किया गया। उन्नीस सौ छाछठ में, राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने प्रथम राष्ट्रपतीय घोषणा जारी कर जून महीने के तीसरे रविवार को पिताओं के सम्मान में, फादर्स डे के रूप में तय किया। छह साल बाद उन्नीस सौ बहत्तर में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन ने इस कानून पर हस्ताक्षर किये और यह एक स्थायी राष्ट्रीय छुट्टी बन गई। उन्नीस सौ अड़तीस में फादर्स डे के प्रोत्साहन के लिये राष्ट्रीय परिषद बनाई गई। इस परिषद का उद्देश्य था लोगों के दिमाग में इस छुट्टी को वैधता दिलाना तथा छुट्टी के दिन बिक्री बढ़ाने के लिये एक व्यावसायिक कार्यक्रम की तरह इस छुट्टी को बढ़ावा देना। छुट्टी के व्यावसायीकरण और उपहारों की राशि बढ़ाने का खेल शुरू हुआ था।
दूसरी तरफ भारतीय शास्त्रों में माता पिता के महत्व को बताने वाली कथा प्रचलित है। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है। एक बार सभी देवों में यह प्रश्न उठा कि सर्वप्रथम किस देव की पूजा होनी चाहिए। शिव जी ने इसके लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की। कहा कि जो पृथ्वी की परिक्रमा करके प्रथम लौटेंगे, वह ही प्रथम पथम पूज्य होगा। सभी देव अपने वाहनों पर सवार हो चल पड़े। गणेश जी ने अपने पिता शिव और माता पार्वती की सात बार परिक्रमा की और शांत भाव से उनके सामने हाथ जोड़कर खड़े रहे। कार्तिकेय अपने मयूर वाहन पर आरूढ़ हो पृथ्वी का चक्कर लगाकर लौटे। शिव जी ने कहा कि माता पिता की परिक्रमा करने वाले गणेश ही विजयी हुए है।
माता पिता के महत्व को रेखांकित करने वाली इससे सुंदर कोई कथा नहीं हो सकती। इससे प्रमाणित है कि माता पिता की सेवा से बढ़कर कुछ नहीं है। इसे एक दिन में सीमित नहीं किया जा सकता। यह सतत चलने वाली भावना ही नहीं प्रक्रिया है। क्योंकि संस्कार के रूप में इसकी प्रतिष्ठा बनी रहती है।