यदि जीवन की ऊंचाईयों को नापना है तो उपवन में खिले फूलों को देखना चाहिए, जो खिलता है दूसरों को सुख देने के लिए और स्वयं मुरझाने के लिए…! साधू की साधुता में ही प्रेम नहीं देखना चाहिए बल्कि दुष्ट की दुष्टता में भी प्रेम को निहारने की साधना करनी चाहिए। जब तक बंदा और खुदा के बीच खुदी का पर्दा है तब तक खुदा का दीदार नहीं होता। स्वार्थ के संपुट में बंद प्रेम महज प्रेमाभास है। प्रेम ऊपर चढे तो भक्ति है और नीचे गिरे आसक्ति। प्रेम रागात्मक है वासनात्मक नहीं। हमारा सारा प्रेम शुभ के लिए होना चाहिए।
हमें व्यक्ति से प्रेम नही करना चाहिए, उसमें निहित आत्मा से प्रेम करना चाहिए … परमात्मा को धर्मालयों में बंद नही करना चाहिए उसे सर्वत्र प्रेम के रुप में खिलने देना चाहिए…प्रेम निश्चल होना चाहिए चाहे सांसारिक प्रेम हो या परमार्थिक प्रेम। प्रेम में प्रतिदान की तनिक भी गुंजाइश नहीं है। प्रेम-प्रेम के लिए होना चाहिए। यह भाव भी नही होना चाहिए कि हम प्रेम कर रहें हैं। प्रेम में केवल देना ही देना है, लेना कुछ भी नही …! अहंकार वह बाधक तत्व है, जो दैवी प्रेम को मनुष्य के अंदर उतरने ही नही देता। सूर्य प्रेमवश जीवनदायिनी किरणें विसर्जित करता है।
मेघ भेद-भाव के बगैर सभी के खेतों मे बरसता है। नदी प्यास मिटाने को निरंतर बहती रहती है। वृक्ष फल लुटाने के लिए झुक जाते हैं। हवा जीवन देने के लिए बहती ही रहती है। इस प्रेम के बदले में वह हमसे कुछ नही चाहते परन्तु हम कृतध्नी लोग भ्रांत सुख की खोज में निर्ममता से इन सबका दोहन करते रहते हैं। इस संकट से बचने के लिए हमें अपने को सबके साथ प्रेम के बंधन में बंधकर चलना होगा अन्यथा हमारा ही अस्तित्व खतरे में पड़ जायेगा । यही दैवीय प्रेम का सार है ….!