डॉ दिलीप अग्निहोत्री


इन्हें तेजश्वी यादव, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल की शागिर्दी में भी संकोच नहीं रह। पिछले कुछ दिनों में ये इन युवा नेताओं के साथ मंच साझा कर चुके है। केंद्र सरकार और भाजपा के खिलाफ ये विपक्षी पार्टियों से जुगलबंदी कर रहे हैं।
जयप्रकश नारायण जयंती पर लखनऊ में समारोह आयोजित किया गया था। सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश इसमें मौजूद थे, लेकिन सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव शामिल नहीं हुए। जयप्रकश के आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी थी। आपातकाल के दौरान वह जेल में बंद रहे। वह शामिल नहीं हो सके, लेकिन यशवंत सिन्हा,और शत्रुघ्न सिन्हा इसमें भागीदारी करने पहुंच गए।
इन दोनों का उत्तर प्रदेश में कोई महत्व नहीं है, बिहार में सपा का कोई आधार नहीं है। ऐसे में इन दोनों की मौजूदगी का कोई मतलब नहीं था। इतना अवश्य है कि इन्हें अपनी भड़ास निकालने का अवसर मिल गया। सपा द्वारा उपलब्ध कराए गए मंच से इन्होंने भाजपा पर जम कर निशाना लगाया। बागी सिन्हा बंधुओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तानाशाह तक बताया, देश में आपातकाल से बदतर हालात बताए। यशवंत और शत्रुघ्न के लिए यह कहना आसान था।


अबतक के सभी फैसले सर्वसम्मत्ति से हुए हैं। इसमें विपक्षी पार्टियों के मुख्यमंत्री भी शामिल रहते हैं। पिछली सरकारें नोटबन्दी, जीएसटी,वन रैंक वन पेंशन पर निर्णय से बचती रहीं, यह उनकी नाकामी थी। यदि ये कार्य पहले होते तो नरेंद्र मोदी को इस पर निर्णय की जरूरत ही नहीं थी। मोदीं ने निजी लाभ हानि को अलग रखकर देशहित को सर्वोच्च मान कर निर्णय किये। विपक्ष की सरकार अपनी विफलता छिपाने के लिए ये मुद्दे उठा रहा है, यशवंत,शत्रुघ्न,अरुण शौरी को तो वर्तमान सरकार के खिलाफ मुद्दे चाहिए।
शत्रुघ्न ,यशवंत,शौरी आदि को अपनी रणनीति तय करने का पूरा अधिकार है। लेकिन मर्यादा के प्रतिकूल आचरण से इनकी प्रतिष्ठा नहीं बढ़ेगी। लखनऊ में यशवंत सिन्हा और शत्रुघ्न सिन्हा ने अखिलेश की शान में कसीदे पढ़े। यह शैली इनकी उम्र के अनुरूप नहीं थी। शत्रुघ्न ने तो उन्हें सीतारा घोषित किया। जयप्रकाश ने सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया था। शत्रुघ्न ने इसी तर्ज पर भाजपा के संपूर्ण सफाए का नारा दिया। शत्रुघ्न को समझना चाहिए कि नारे की तुकबंदी से कोई जयप्रकाश की तरह महान नहीं बन सकता। जेपी पद लिप्सा से बहुत दूर थे।


जातिवंश की राजनीति से उनका कोई लेना देना नहीं था। उनके नाम पर जातीय सम्मेलन करना, जिस पार्टी के सांसद है, उसी के सफाए की बात करना स्वार्थ की राजनीति है। यदि भाजपा उन्हें नहीं निकाल रही है, तो इन नेताओं को पार्टी छोड़ देनी चाहिए। लेकिन जब नाराजगी पद के लिए होती है,तो सिद्धांत बेमानी हो जाते है। नरेंद्र मोदी ने इन्हें अहमियत दी होती तो ये बगावत के रास्ते पर शायद नहीं जाते।
यशवंत सिन्हा ने कहा कि जब देश में अंधेरा था, तानाशाही के दिन थे जब जयप्रकाश जी ने दूसरी आजादी की लड़ाई लड़ी। आज इमर्जेंसी से बदतर हालात हैं। इसकी चुनौती से हम मिलकर निबटेंगे। लोकतांत्रिक संस्थाएं खतरे में है।
यशवंत की बात पर विश्वास करें तो यह भी मानना होगा कि उनके पुत्र जयंत भी तनाशाही,एमर्जेन्सी और लोकतांत्रिक संस्थाओं को खतरे में डालने वालों की टीम में शामिल है। यशवंत के पुत्र जयंत केंद्र में मंत्री हैं। वह इन मठाधीशों के बयान की निंदा कर चुके है। वैसे जो यशवंत अपने बेटे को अपनी बात समझाने में विफल है ,उन्हें गलतफहमी है कि लोग उनके आह्वान पर भाजपा का सम्पूर्ण सफाया कर देंगे। शत्रुघ्न पहले नीतीश की तारीफ में कसीदे पढ़ते थे, जब वहां पनाह नहीं मिली, तब तेजश्वी, केजरीवाल,हार्दिक पटेल के विषय में वही बात दोहराई, अब उन्हीं विशेषताओं को अखिलेश पर भी लागू कर दिया।
जाहिर है ये नेता अपने लिए संभावना तलाश रहे है। इन नेताओं को भाजपा में अपना भविष्य दिखाई नहीं दे रहा है। इनका ऐसा जनाधार भी नहीं कि चुनाव में करिश्मा दिखा सकें। ऐसे में इन्हें अब अपनी सियासी पारी जारी रखने की चिंता सता रही है। यही चिंता उन्हें दिग्भ्रमित किये हुए है। यही कारण है कि इन्हें अपनी से आधी उम्र के नेताओं के कसीदे पढ़ने में भी संकोच नहीं है।