नोटबंदी और जीएसटी के बाद गुजरात में एक बार फिर देनी होगी प्रधानमंत्री को अग्नि परीक्षा
जीके चक्रवर्ती
गुजरात में चुनावी बिगुल बजने के साथ ही गुजरात विधानसभा चुनाव पर देश भर के लोगों की नजरें टिकी हुई है। वजह साफ़ है कि गढ़ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी का है और विपक्ष में राहुल गाँधी, हार्दिक पटेल जैसे दिग्गज लोग है ऐसा अनुमान है कि इस चुनाव के परिणाम राष्ट्रीय राजनीति की भावी दिशा तय करने वाली है। मौजूदा समय में होने वाली गुजरात चुनाव की तुलना हम कुछ मायनों में बिहार में वर्ष 2015 में हुए चुनाव से भी की जा सकती है।
इस प्रदेश में दोनों पक्षों का चरित्र कुछ इस तरह का नजर आ रहा है जहाँ मौजूद समय में बीजेपी की सरकार के पास राज्य एवं केंद्र दोनों जगह की सत्ता पर काविज होने के साथ ही साथ उसके पास तमामो संसाधनो से लैस विकास देने का नारा साथ लिए है। दूसरी ओर कांग्रेस पार्टी है, जो की विकास प्रक्रिया में वंचित रह गए या किसी न किसी प्रकार के अन्याय के शिकार समुदायों को अपने साथ लेकर मैदान में खड़ी होने की कोशिश में लगी हुई है। अब तक हुए ज्यादातर सर्वेक्षणो से यह बात निकल कर आ रही है कि यह लड़ाई बीजेपी के लिए एक तरफा बताया जा रहा है तो वही पर कुछेक को चुनाव में कांटे की टक्कर का भी सामना करना पड़ सकता है, यह इस बात की ओर संकेत करते हैं कि गुजरात मॉडल प्रत्येक मर्ज का अकेला इलाज तो नहीं है।
विगत दो-ढाई वर्षों के दौरान गुजरात में मौजूद सरकार के खिलाफ पाटीदार, पिछड़े, दलित, किसान से लेकर व्यापारी वर्गों के लोगो ने सड़क पर आकर असंतोष जाहिर किया हैं। दरअसल यहां पर गुजरात मॉडल के साथ ही साथ प्रधानमंत्री की प्रतिष्ठा भी दांव पर लगी हुई है। अभी हाल ही में केंद्र सरकार की जीएसटी और नोटबंदी जैसी नीतियों के लागू होने से यहाँ के जनमानस के प्रतिकारों का इम्तहान भी होने वाला है। मुखतयः यहाँ पर बीजेपी का नारा प्रत्येक जगह की ही तरह विकास पर ही केंद्रित है, लेकिन सामाजिक समीकरण साधने में वह भी किसी से पीछे नहीं है। उनके पास पहले से प्रत्येक जाति एवं वर्गों के लोगों का संगठन हैं, जिसका इस्तेमाल वह अपने खिलाफ होने वाले संभावित एकजुटता को तोड़ने में कर रही है। दूसरी ओर कांग्रेस ने अपने द्वारा किये हुए पिछली गलतियों से सबक लेते हुए अपनी रणनीति भी को बदलते हुए इस कोशिश में लगी हुई है कि बीजेपी के ही हथियारों से उस पर निशाना साधा जाये जिसके लिए वह सोशल मीडिया पर आक्रामक रूप धारण करते हुए हिंदुत्व कार्ड को खेलने जैसा रास्ता अपनाने जैसी कोशिशों में जुटी हुई है।
राहुल गांधी ने चुनाव प्रचार की शुरूआत मंदिरों में पूजा-अर्चना के साथ की और यह सिलसिला जारी है। 2002 दंगों को लेकर अब तक बीजेपी को कोसती रहने वाली कांग्रेस इस मुद्दे का जिक्र तक नहीं कर रही। उसका सबसे ज्यादा जोर मुसलमानों के मौन समर्थन के साथ दलित, ओबीसी और पाटीदार का एक समीकरण तैयार करने पर है। इसके लिए पाटीदार नेता हार्दिक पटेल और युवा दलित नेता जिग्नेश मेवानी का समर्थन सुनिश्चित किया गया है, जबकि पिछड़ा समुदाय के लीडर अल्पेश ठाकुर को पार्टी में शामिल कर लिया गया है।
आदिवासी समुदाय से आने वाले जेडीयू के बागी नेता छोटूभाई वसवा के साथ भी कांग्रेस ने डील की है। देखना है, ये कोशिशें वोटों में बदल पाती हैं या नहीं। असल चुनौती एक कारगर चुनावी मशीनरी बनाने की है, जिसमें बीजेपी का कोई मुकाबला नहीं है। लेकिन राजनीति के दलदल में लोग एक दूसरे की छवि को खाक में मिलाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ रहे हैं चाहे वो अश्लील सीडी पेश करके हो या भ्रस्टाचार के काले कीचड़ से! अब देखना यह हैं कि वह रूप में मतदाताओं के मन में अपनी साफ़ छवि बनाकर वोट पर अपना अधिकार जमा पाता हैं फ़िलहाल संग्राम जारी हैं।