सुमन सिंह
क्या बादशाह अकबर चित्रकारी भी करते थे ? वैसे इतना तो हम जानते हैं कि अकबर एक कलाप्रेमी बादशाह था, जिसके दरबार में विद्वानों और कलाकारों को प्रतिष्ठित स्थान प्राप्त थाI बहरहाल मुग़ल शैली के पर्सियन चित्रकारों में एक मीर सैय्यद अली से संबंधित जानकारी के क्रम में यह बात भी सामने आती है। यहाँ यह जिक्र मिलता है कि मीर सैय्यद अली ने बचपन से अब्द अल-समद के साथ, भविष्य के सुल्तान यानी अकबर को चित्रांकन की कला सिखाई थी।
बहरहाल यहाँ हम बात करते हैं इस फारसी इलस्ट्रेटर और लघु चित्रों के चित्रकार मीर सैय्यद अली (1510-1572 संभवतः) का, जिनका जन्म तबरीज़ नमक शहर में हुआ। तत्कालीन ईरान का यह ऐतिहासिक शहर तबरीज़ इन दिनों अज़रबैजान की राजधानी है। कला का ज्ञान इन्हें विरासत में मिला क्योंकि पिता मीर मुसव्विर स्वयं फ़ारसी शैली के कलाकार थे। इतिहासकार क़ाज़ी अहमद का मानना है कि बेटा अपने पिता से अधिक प्रतिभाशाली था, लेकिन पिता की शैली के प्रभाव ने उसके काम को प्रभावित किया। हालिया शोध से पता चला है कि मीर सैय्यद अली ने 1525 में निर्मित शाह तहमास के प्रसिद्ध शाहनामे के चित्रण में भाग लिया था। इसमें बने दो लघुचित्रों को सैय्यद अली की कृति समझी जाती है। इस दिशा में अगला कदम शाह तहमास के आदेश से 1539-43 में शाह किटाबेन के सर्वश्रेष्ठ कलाकारों द्वारा बनाई गई निज़ामी (“पाँच कविताएँ”) की खमसा की पांडुलिपि के लिए भव्य चित्रण के निर्माण में उनकी भागीदारी थी।
1540 तक आते आते शाह तहमास रूढ़िवादी होता चला गया, जिसके कारण जीवित प्राणियों के चित्रण की परंपरा उसे रास नहीं आने लगी। इस बदलाव का परिणाम यह हुआ कि उसके दरबार के कलाकारों ने अन्य बादशाहों के दरबार में शरण लेना ही श्रेयस्कर समझा। इन कलाकारों में से अधिकांश ने शाह तहमास के भतीजे, सुल्तान इब्राहिम मिर्जा के दरबार में शरण ली। इधर भारत में शेरशाह सूरी के साथ असफल लड़ाई के बाद मुगल सम्राट हुमायूं ने अपना सिंहासन खो दिया और 1543 में फारस पहुंचे, जहां शाह तहमास ने उनका न केवल गर्मजोशी से स्वागत किया, उच्चतम सुरक्षा भी प्रदान की। जब हुमायूँ तबरीज़ में रह रहा था, तब वह वहां के स्थानीय कलाकारों से परिचित हो गया। यही नहीं वह उनकी प्रतिभा से मंत्रमुग्ध सा होता चला गया। बाद में जब तबरीज़ के पुस्तकालय की तर्ज़ पर एक पुस्तकालय बनाने का विचार हुमायूँ को आया तब उसने वहां के दो कलाकारों को इसके लिए आमंत्रित किया। ये कलाकार थे अब्द अल-समद और मीर मुसव्विर। किन्तु किसी कारण से मीर मुसव्विर के लिए इस आमंत्रण को स्वीकारना संभव नहीं हो पाया, ऐसे में यह आमंत्रण उनके बेटे मीर सैय्यद अली के पास चली गई।
विदित हो कि हुमायूँ भारतीय उपमहाद्वीप में अपना खोया हुआ राज्य हासिल करने से पहले काबुल में रहा। 1549 में मीर सैय्यद अली काबुल पहुंचे और 1555 तक वहां काम किया। इसके बाद जब 1555 में हुमायूँ की सेना ने सिकंदर शाह की सेना को एक लड़ाई में हरा दिया। तब दिल्ली का द्वार खुलाऔर उनके पिता हुमायूँ ने दुबारा राजगद्दी हासिल की। काबुल में रहते हुए इस कलाकार ने जो चित्र बनाये उसमें “एक युवा लेखक का चित्रण” उनकी सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। लॉस एंजिल्स संग्रहालय के विशेषज्ञों का मानना है कि यह कलाकार का आत्म चित्र हो सकता है।
बादशाह हुमायूँ का उत्तराधिकारी अकबर था, जो अपने पिता की तुलना में चित्र लघु चित्रों का और भी अधिक भावुक प्रेमी था। मीर सैय्यद अली ने बचपन से अब्द अल-समद के साथ, भविष्य के सुल्तान को गर्मजोशी भरे संबंधों के बीच ड्राइंग की कला सिखाई थी। सैय्यद अली ने शाही अदालत के कला पहल की अगुवाई की, और उनके नेतृत्व में विश्व इतिहास की पुस्तक में सबसे महत्वाकांक्षी परियोजनाओं में से एक शुरू हुई जिसे आज हम “हमजानामा ” के नाम से जानते हैं। समझा जाता है कि यह पुस्तक अमीर मुहम्मद, जो पैगंबर मुहम्मद के चाचा थे, का इतिहास है। इस पुस्तक को चौदह खंडों में विभाजित किया गया था, जिनमें से प्रत्येक में एक सौ चित्र थे, यानी कुल – 1,400 लघुचित्र। हालांकि अब इनमें से लगभग 140 ही बचे हैं, जो दुनिया भर के विभिन्न संग्रहालयों और संग्रह में बिखरे हुए हैं।
मीर सैय्यद अली फ़ारसी परंपरा और सुल्तान अकबर के अंत तक वफादार रहे, जहाँ उन्होंने उन कलाकारों के एक अंतरराष्ट्रीय समूह के लिए काम किया जिन्होंने फ़ारसी चित्रकला के सिद्धांतों की वकालत की। उनकी रचनाओं में, उनके पिता मीर मुसव्विर और सुल्तान मुहम्मद के प्रभाव को देखा जा सकता है। उनके काम से उन्हें कई पुरस्कार और प्रशंसा मिली। अबू-फ़ज़ल द्वारा रचित अकबरनामा में भी इस कलाकार का जिक्र आता है। उसी दौर में अल फदल द्वारा बनायीं गयी उस युग के सर्वश्रेष्ठ कलाकारों की सूची जिसमें सौ से अधिक कलाकारों को रखा गया में मीर सैय्यद अली को पहला स्थान दिया गया। उनकी सेवाओं से प्रसन्न होकर सम्राट हुमायूँ ने उन्हें “नादिर-उल-मुल्क” की मानद उपाधि दी थी।
समझा जाता है कि “हमज़ानमा” के पूरा होने के सात साल बाद लगभग 1569 में, इस कलाकार ने मुगल दरबार छोड़ दिया, और एक श्रद्धालु मुस्लिम की तरह हजयात्रा पर मक्का चला गया। कुछ शोधकर्ताओं का मानना है कि हज के दौरान ही उनकी मृत्यु हो गई थी, जबकि अन्य का मानना है कि वह अकबर के दरबार में वापस लौट आए और 1580 में उनकी मृत्यु हो गई। यहाँ प्रस्तुत हैं गूगल के सौजन्य से विभिन्न संग्रहालयों में संग्रहित उनके कुछ मौजूदा चित्र-
(विवरण श्रोत : wikipidia) – singhh63.blogspot.com से साभार