भारत सिंह
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह: कश्मीर के वीर रक्षक: 1947 का भारत-पाक युद्ध भारत की नवस्वतंत्रता और एकता की कसौटी था। इस दौर में ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह जामवाल का नाम इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज हुआ। जम्मू-कश्मीर स्टेट फोर्सेस के चीफ ऑफ स्टाफ के रूप में, उन्होंने अपनी अदम्य वीरता और बलिदान से कश्मीर को पाकिस्तानी कबायलियों और सैनिकों से बचाया। उनकी कहानी आज भी हर भारतीय के लिए प्रेरणा है।
पाकिस्तान की कश्मीर पर आक्रमण की योजना
14 जून 1899 को जम्मू के सम्बा जिले के बगूना (वर्तमान में राजेंद्रपुरा) में जन्मे राजेंद्र सिंह ने 1921 में जम्मू-कश्मीर स्टेट फोर्सेस में अपनी सैन्य सेवा शुरू की। मई 1942 में ब्रिगेडियर के पद पर पदोन्नत होने के बाद, 25 सितंबर 1947 को उन्हें स्टेट फोर्सेस का कमांडर नियुक्त किया गया। इस दौरान, भारत-पाक विभाजन के बाद पाकिस्तान ने कश्मीर पर कब्जे की साजिश रची। 21-22 अक्टूबर 1947 की रात, ‘गुलमर्ग’ ऑपरेशन के तहत पाकिस्तानी सैनिकों और हजारों कबायलियों ने मुजफ्फराबाद पर हमला किया। इस हमले ने स्टेट फोर्सेस की एक बटालियन में विद्रोह को भड़काया, जिसमें कई डोगरा सैनिक शहीद हुए, जिससे श्रीनगर तक का रास्ता असुरक्षित हो गया।
‘आखिरी सैनिक और आखिरी गोली’ तक कश्मीर की रक्षा
महाराजा हरि सिंह ने ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को कश्मीर की रक्षा का जिम्मा सौंपा, “आखिरी सैनिक और आखिरी गोली” तक। केवल 150 सैनिकों और सीमित संसाधनों के साथ, उन्होंने 23 अक्टूबर 1947 को उरी में डटकर मुकाबला किया। 6,000 से अधिक हमलावरों के खिलाफ, उन्होंने गुरिल्ला रणनीति अपनाई। उरी, गढ़ी, महुरा और बुनियार में चार महत्वपूर्ण युद्ध लड़े गए। 24 अक्टूबर को उरी के पुल को नष्ट करने का उनका निर्णय निर्णायक रहा, जिसने दुश्मन को दो दिन तक रोका। इस दौरान, 26 अक्टूबर को महाराजा ने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए, और भारतीय सेना श्रीनगर पहुंची।
पाकिस्तानी हमलावरों ने ब्रिगेडियर पर घात लगाकर किया हमला
26-27 अक्टूबर 1947 की रात, बुनियार में पाकिस्तानी हमलावरों ने ब्रिगेडियर और उनकी टुकड़ी पर घात लगाई। अंतिम सांस तक लड़ते हुए, उन्होंने वीरगति प्राप्त की। उनके इस बलिदान ने भारतीय सेना को महत्वपूर्ण समय दिया, जिससे कश्मीर भारत का हिस्सा बना। डॉ. करण सिंह ने कहा, “उनके साहस के बिना, कश्मीर शायद भारत का हिस्सा नहीं होता।”
प्रथम महावीर चक्र और सम्मान
30 दिसंबर 1949 को, ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह को स्वतंत्र भारत का पहला महावीर चक्र (मरणोपरांत) प्रदान किया गया। उनकी पत्नी, राम देई, ने यह सम्मान प्राप्त किया। उनकी प्रशस्ति में लिखा गया: “उनके साहस ने दुश्मन को रोककर कश्मीर को भारत से जोड़ा।” उनके बलिदान की तुलना ग्रीक योद्धा लियोनिदास से की जाती है।
साहस की गवाही राजेंद्रपुरा
ब्रिगेडियर के सम्मान में उनके गांव का नाम राजेंद्रपुरा रखा गया। जम्मू में उनके नाम पर चौक, ऑडिटोरियम और स्कूल हैं। श्रीनगर के बदामी बाग में उनकी प्रतिमा और राजेंद्र विला उनके साहस की गवाही देते हैं। 2018 में उनके परिवार ने उनकी मूर्ति का अनावरण किया।
देशभक्ति और साहस की मिसाल थे ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह के नेतृत्व में, 150 सैनिकों ने लगभग 6,000 से अधिक पाकिस्तानी हमलावरों को रोका, जिसने भारत के इतिहास को बदल दिया। ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह की कहानी देशभक्ति की प्रसिद्द मिसाल है। 150 सैनिकों के साथ 6,000 हमलावरों को रोककर उन्होंने इतिहास बना दिया। उनके बलिदान ने कश्मीर को बचाया और डोगरा समुदाय के लिए गर्व का प्रतीक बनाया। उनकी वीर गाथा आज भी जम्मू-कश्मीर में प्रेरणा देती है, जहां लोग उनकी तरह देश की रक्षा में समर्पित हैं।
ब्रिगेडियर राजेंद्र सिंह का जीवन और बलिदान हमें सिखाता है कि सच्चा साहस संख्याओं में नहीं, बल्कि दृढ़ संकल्प और देशभक्ति में होता है। उनकी शहादत को सलाम करते हुए, हमें उनके जैसे नायकों को याद रखना चाहिए, जिन्होंने भारत की एकता को अक्षुण्ण रखा।








