गौतम चक्रवर्ती
किसी भी देश समाज को विकास के पथ पर अग्रसर होने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं की जरूरतों में आत्म निर्भर होने की परम आवश्यकता है इसके लिए सरकारें अपने यहां की प्राकृतिक संसाधनों जैसे कोयला, पेट्रोल, मिट्टी का तेल गैस या बिजली जैसे प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करती है सवाल उठता है कि इन सभी प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग तभी किया जा सकता है जब उसे भारी मात्रा में उपलब्ध हो और उसे प्राप्त भी किया जा सके।
जैसा कि हम सभी लोगों को यह पता है कि आज हमारे देश में पेट्रोल से लेकर कोयला मिट्टी के तेल के इस्तेमाल पहले की अपेक्षा बहुत कम हो गया है क्योंकि इन सभी खनिज उत्पादनों की मात्र आज इतनी कम हो चुकी है कि आने वाले कुछ ही वर्षो में यह सभी तरह खनिज संसाधनों का भंडार खत्म हो जाएगा। इसके लिए हमें अभी से तैयार रहने की आवश्यकता है, लेकिन जब तक हमारे इन संसाधनों की उपलब्धता खदानों में है तब तक हम उसका दोहन करते करेंगे। इस सिलसिले में देश के छत्तीसगढ़ राज्य की कोयला खदानों से कोयला निकलने के काम को वहां की सरकार तेज करना चाहती है जिसके लिए यहां के खदानों में और अधिक दूर तक फैलाव में खुदाई का कार्य होना है।
यहां हम आपको बता दें कि भारत के इस राज्य छत्तीसगढ़ के अलावा कोयले के सबसे बड़े भंडार झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल, मध्य प्रदेश, तेलंगना और महाराष्ट्र में हैं। इसके अतिरिक्त आंध्र प्रदेश, बिहार, उत्तर प्रदेश, मेघालय, असम, सिक्किम, नगालैंड और अरुणाचल जैसे प्रदेशों में भी कोयले के खादाने हैं। जिनसे हम आगे आने वाले लम्बे समय तक कोयले की जरूरत की पूर्ति कर सकते हैं अब क्या यह आवश्यक है कि केवल छत्तीसगढ़ के सहदेव के जंगलों से ही कोयले निकालने के कार्य किए जाएं।
देश के छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिणी सरगुजा, उत्तरी कोरबा और सूरजपुर जिले के मध्य स्थित हसदेव जंगल का क्षेत्रफल लगभग 1,70,000 हेक्टेयर हैं। यह जंगल अपनी जैव विविधताओ के लिए पूरे भारत में जाना-पहचाना जाता है। वर्ष 2021 में एक संस्था की रिपोर्ट के अनुसार, हसदेव अरण्य गोंड, लोहार और ओरांव जैसी आदिवासी जातियों के 10 हजार से भी अधिक लोगों का निवास है। इस वन क्षेत्र में इन आदिवासीयों के निवास स्थान होने के अतिरिक्त 82 प्रकार के विभिन्न प्रकार के पक्षीयां, दुर्लभ प्रजाति की तितलियां एवम 167 प्रकार की वनस्पतियां भी पाईं जाती हैं, आज जो स्थिति यहां की है उसमे विभिन्न प्रकार के वनस्पतियों का अस्तित्व ही संकट में है।
हालांकि छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा 26 मार्च 2022 को यह दावा किया गया था कि कोयले खदान खोदने की मंजूरी अभी विचाराधीन है, एक समाचार पत्र में छपी जानकारी से यह पता चलता है कि इस योजना को नौ शर्तों के साथ 25 मार्च 2022 को ही मंजूरी दी गई है।
हसदेव के जंगल को हम, मध्य भारत की फेफड़ा कह सकते हैं क्योंकि यह वन क्षेत्र न केवल मानसून को नियंत्रित करती है बल्कि भूमिगत जल के संग्रहण में भी यह महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, इसलिये पर्यावरणविदों को यह चिंता होना स्वाभाविक ही है कि इन जंगलों के कटने से पर्यावरण पर तो प्रभाव पड़ेगा ही इसी के साथ ही साथ बड़े पैमाने पर होने वाले खनन कार्यों के करण अनेक नदियों के अस्तित्व पर ही संकट उत्पन्न हो जाएगा।
वर्ष 2014 में प्रस्तुत एक एजेंडा नोट के अनुसार, पीईकेबी कोयला ब्लॉक की मंजूरी के संबंध में, इस कोयले ब्लॉक में खनन कार्यों से 2,42,670 वृक्ष प्रभावित होंगे। पेड़ों की यह संख्या वर्ष 2009 में की गई एक गणना के अनुसार हैं। यहां के जंगल में जंगली सूअर से लेकर लोमड़ी, सियार, भेड़िया, भालू और हाथी जैसे जानवर पाये जाते हैं। यहां के पेड़ों की मुख्य प्रजातियों में धवा, आंवला, साजा, साल, भीलवान, महुआ, हर्रा और जामुन इत्यादि जैसे बहुमूल्य पेड़ हैं, लेकिन वर्तमान समय में ऐसा अनुमान है कि 3 लाख से अधिक पेड़ जंगल में मौजूद हैं।
इस इलाके के एक वरिष्ठ वन अधिकारी के अनुसार यहां कोयला खनन के लिए वन में पेड़ों की कटाई शीघ्र ही शुरू हो सकती है। जिस कार्य के लिए यहां पर “पेड़ों की गिनती एवम छटाई का कार्य हो जाने के बाद चन्हित पेड़ों की कटाई शुरू हो जाएगी। एसे में इस वन क्षेत्र के निवासियों द्वारा छत्तीसगढ़ अरण्य बचाओ आंदोलन शुरू किया गया है जिससे जुड़े अनेकों आंदोलनकरियों का कहना है कि ‘ऊर्जा की जरूरतों की पूर्ति के लिए आज के समय में हमारे पास केवल कोयले ही अंतिम विकल्प के रूप में नहीं है।
हाँ, यह बात सर्वथा अलग है कि यदि आज हमारे पास कोयले के विकल्प के रूप में केवल कोयला ही होता तो शायद एसे में हसदेव के जंगलों को उजाड़े बिना काम ही नहीं चलता लेकिन आज भी हमारे पास हसदेव के जंगली इलाक़े को छोड़कर कोयले के अन्य खदाने मौजूद हैं और स्वयं हमारी सरकार का कहना है कि यदि हसदेव जैसे इलाक़ों को छोड़ भी दिया जाए तो फिर भी हमारे देश के पास अगले सत्तर वर्षों तक के लिए कोयला भण्डार मौजूद है तो फिर ऐसा में यह बात उठना स्वाभाविक है कि सत्तर वर्षों पूर्व ही इन जंगलों के सफाए की फरमान क्यों ?