ऋगवेद में लोक शब्द का प्रयोग ‘जन’ के लिए तथा स्थान के लिए हुआ है-
‘‘य इमे रोदसी उमेष अहमिन्दमतुष्टवं।
विश्वासमत्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनं।।
तथा
नाभ्या आसीदंतरिक्षं शीष्र्णो व्यौ समवर्तत।
पदभ्यां भूमिद्र्दिशः श्रोत्रातथा लोकां अकल्पयत्।।’’
उपनिषदों में ‘अयं बहुतौ लोकः’ कह कर विस्तार को लक्षित किया गया है। पाणिनी की अष्टाध्यायी में लोक तथा ‘सर्वलोक’ शब्दों का प्रयोग हुआ है और उनसे ‘लौकिक’ तथा ‘सार्वलौकिक’ शब्द जुड़े हुए उल्लिखित हैं । इससे स्पष्ट होता है कि पाणिनी ने वेद से पृथक् लोकसत्ता को स्वीकार किया था। वररूचि व पतंजलि ने भी लोकप्रचलित शब्दों के उद्धरण दिए हैं। भरतमुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में लोकधर्मी तथा नाट्यधर्मी परम्पराओं का अलग-अलग रूप से उल्लेख करके लोक परम्पराओं को स्पष्ट रूप से अलग स्थान दिया है। ‘लोक’ शब्द का प्रयोग महाभारत में भी हुआ है और वहाँ इसे ‘सामान्य-जन’ के अर्थ में ही व्यवहृत किया गया है। ‘प्रत्यक्षदर्शी लोकानां सर्वदर्शी भवेन्नरः’ अर्थात् जो व्यक्ति ‘लोक’ को अपने चक्षुओं से देखता है वहीं सर्वदर्शी अर्थात् उसे पूर्णरूप से जानने वाला ही कहा जा सकता है।’ उक्ति महाभारत में वर्णित है।
डाॅ. हजारी प्रसाद द्विवेदी तथा कतिपय विद्वान ‘लोक’ शब्द का अर्थ ‘ग्राम्य’ या ‘जनपद’ नहीं मानते बल्कि गाँवों में फैली हुई उस जनता से लगाते हैं जिसका ज्ञान व्यावहारिक तथा मौखिक है। पहाड़ी तथा डोगरी भाषा क्षेत्रों में लोक शब्द का अर्थ सामान्य जनता से ही लिया जाता है। ‘लोक’ शब्द को कुछ विद्वानों ने अपने शब्दजाल में बाँधकर अभिजात्य वर्ग से दूर कर दिया तथा परम्परागत ढंग से अपेक्षाकृत आदिम अवस्था में निवास करने वाले लोगों को ही ‘लोक’ कहने के लिए सामान्य पाठकों को प्रेरित करने की चेष्ठा की, यह परिभाषा अधूरी है। ‘लोक’ का अर्थ ‘समाज’ के पर्याय के रूप में होना चाहिए क्योंकि समाज अपनी मान्यताओं व परम्पराओं से अलग अस्तित्व वाला नहीं होता और ‘लोक’ का आकार भले ही समाज से अपेक्षाकृत छोटा हो परन्तु वह भी किसी बड़े समाज का सक्रिय अंग होता है। समाज का लिखित इतिहास हो सकता है और अब यही बात ‘लोक’ के लिए भी समझी जा सकती है।
लोक साहित्य का सम्बंध लोक संस्कृति के साथ है। संस्कृति को ‘शिष्ट’ तथा ‘लोक’ दो भागों में बाँटा गया है। शिष्ट संस्कृति का सम्बंध अभिजात्य वर्ग से है और उसकी परम्पराओं व ज्ञान का आधार लिखित साहित्य होता है जबकि सामान्य जन लोक विश्वासों व लोक परम्पराओं में अधिक विश्वास करता है और उसकी मान्यताएं अलिखित होती हैं। वेद, शास्त्रों तथा पुराण आदि द्वारा दर्शाया गया मार्ग अपेक्षाकृत परिष्कृत तथा विज्ञान सम्मत है अतः उसे शिष्ट संस्कृति के अंतर्गत रखा जा सकता है।
वैसे देखा जाए तो शिष्ट साहित्य भी सामाजिक परिवेश को आधार मान कर लिखा जाता है और इस प्रकार लोक संस्कृति शिष्ट संस्कृति की सहायिका होती है। अथर्ववेद तथा ऋग्वेद लोक संस्कृति तथा शिष्ट संस्कृति के उत्तम उदाहरण हैं। ऋग्वेद में यज्ञों तथा अनुष्ठानों के वैज्ञानिक पक्ष को अपेक्षाकृत अधिक मान्यता दी गई है परन्तु अथर्ववेद में सामान्य परम्पराओं यथा टोना-टोटका, जादू-मंत्र और अंध विश्वासों पर आधारित परम्पराओं का अधिक उल्लेख है। ‘फोक’ शब्द से असंस्कृत तथा मूढ़ समाज का बोध होता है तथा ‘लोर’ शब्द का अर्थ ‘वह जो सीखा जाए’ है। फोक का सम्बंध व्यापक अर्थ में सुसंस्कृत लोगों के लिए भी हुआ है अतः ‘लोक साहित्य’ के लिए प्रयुक्त होने वाले ‘फोकलोर’ शब्द का अर्थ ‘असंस्कृत तथा आदिम अवस्था में निवास कर रहे लोगों के विचार व क्रिया व्यापार’ हुआ। ‘फोकलोर’ शब्द का प्रयोग इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध पुरातत्ववेता विलियम जे.टामस ने सन् 1846 ई. में ‘पापुलर एंटीक्वीटीज़’ के लिए किया था।
गोल्डन बाॅड के लेखक डाॅ. जे.जी. फ्रेजर ने अपने ग्रन्थ को अठारह भागों में लिखकर ‘फोकलोर’ को एक सुप्रतिष्ठित विषय के रूप में प्रतिपादित कर दिया है। ई.वी.टायलर ने ‘प्रिमिटिव कल्चर’ नामक पुस्तक में संस्कृति को व्याख्यायित करने का यत्न किया है। ‘फोकलोर’ यदि असंस्कृत लोगों का ज्ञान है तो समग्र लोकसाहित्य मात्र पिछड़े लोगों का साहित्य कहा जाएगा। अतः अब तक उकेरी गई व्याख्याएं तथा परिभाषाएं मात्र बौद्धिक व्यायाम है और इस विषय के वैज्ञानिक तथा व्यावहारिक पक्षों से मेल नहीं खाती।
पं. राम नरेश त्रिपाठी ने फोक के लिए ‘ग्राम’ शब्द सुझाया है और ‘फोकसांग’ के लिए ‘ग्रामगीत’ शब्द का निर्माण किया है। डाॅ.वासुदेव शरण अग्रवाल ने फोकलोर के लिए लोकवार्ता शब्द का प्रयोग किया है परन्तु कुछ विद्वानों ने इस पर भी आपत्ति की है। वे वार्ता को इकोनोमिक्स से जोड़ते हैं और उनका कथन है कि वार्ता शब्द अर्थशास्त्र और राजनीति शास्त्र के लिए कौटिल्य के अर्थशास्त्र में प्रयोग हुआ है।
डाॅ. सुनीति कुमार चटर्जी का ‘लोकायन’ शब्द भी लोकवार्ता के पर्याय के रूप अपर्याप्त है। डाॅ. कृष्णदेव उपाध्याय इसके लिए ‘लोकसंस्कृति’ शब्द सुझाते हैं। वे इसके अन्तर्गत आचार-विचार, विधि-निषेध, परम्परा, धर्म, मूढ़ाग्रह, अनुष्ठान, आदि गिनाते हुए इसे फोकलोर का सही पर्यायवाची मानते हैं। परन्तु इससे कुछ विद्वान सहमत नहीं। वास्तव में संस्कृति में अव्यक्त परम्पराएँ यथा विश्वास, मनोवृतियाँ, लोकधारणाएँ आदि भी सम्मिलित रहती हैं अतः ‘फोकलोर’ लोक संस्कृति का पर्याय नहीं हो सकता। डाॅ. हजारीप्रसाद द्विवेदी तथा कतिपय अन्य विद्वान ‘लोकसंस्कृति’ को फोकलोर का पर्याय मानने में सहमत हैं। लोकवार्ता के अन्तर्गत लोकसाहित्य, लोकविज्ञान, लोक भाषा तथा लोकचेष्टाओं का अध्ययन सम्मिलित रहता है अतः फोकलोर का पर्याय लोकवार्ता करने में कुछ कठिनाइयाँ हैं।
डाॅ. कृष्णदेव उपाध्याय फोकलोर के लिए लोक संस्कृति शब्द को पर्याय मानते हुए अनेक तर्क प्रस्तुत करते हैं। सोफ़िया बर्न ने लोक संस्कृति के विषय को लोक विश्वास तथा अन्ध परम्पराएँ, रीति-रिवाज तथा प्रथाएँ और लोक साहित्य को तीन भागों में विभाजित किया है। इस प्रकार लोकसाहित्य लोक संस्कृति का एक अंग मात्र रह जाता है और उसके अंतर्गत लोेक कथाओं, लोकगीतों, प्रहेलिकाओं, कहावतों, सूक्तियों आदि का अध्ययन ही सम्भव है, जबकि लोक विश्वास, शकुन-अपशकुन, जादू-टोना, जीवन-मृत्यु तथा पृथ्वी व ब्रह्माण्ड सम्बंधी धारणाएँ और सामाजिक व राजनैतिक संस्थागत जीवन, व्यवसाय, व्रत-त्यौहार, आदि सम्बंधी अनुष्ठान लोक साहित्य के अंतर्गत नहीं आते। लोकभाषा जिसके अंतर्गत लोकवाणी के सभी प्रकार यथा लोकगीत, लोककथाएँ, वाक्य, चुटकुले, सूक्तियाँ, प्रहेलिकाएँ आदि सम्मिलित रहते हैं, लोक साहित्य का महत्वपूर्ण अंग है।
इस प्रकार लोक साहित्य लोकसंस्कृति की अपेक्षा पर्याप्त संकीर्ण क्षेत्र पर अपना अधिकार रखता है। कुछ भी हो लोक संस्कृति तथा लोक साहित्य को विद्वानों ने अपनी परिभाषाओं के माध्यम से आदिम समाज के साथ जोड़कर प्रस्तुत करने की चेष्टा की है और यह परिभाषा मात्र आंशिक सत्य कही जा सकती है क्योंकि अभिजात समाज में भी लोक संस्कृति की धाराएँ प्रवाहित रहती हैं, इस दशा में उनके लिए नई परिभाषाएँ गढ़ने की आवश्यकता रहेगी।
डाॅ. सत्येंद्र ने लोक साहित्य को लोकवार्ता तथा वाणी विलास के दो भागों में विभाजित करके सिद्ध किया है कि लोकवार्ता समुदाय विशेष का वाणीगत साहित्य है। लोकाभिव्यक्ति मनोमोदिनी मनस्तोषिणी तथा शरीरतोषिणी होती है। अतः लोकसाहित्य में भी ये विशेषताएँ स्वतः आ जाती हैं। लोकगीत/गाथा, लोककथा, लोकनाट्î तथा लोक सुभाषित सामाजिक अहंचैतन्य के साथ सम्बद्ध है,अतः उसके जंगली, ग्रामीण तथा शहरी तीन स्तर बताए गए हैं। इसके बीच की अवस्थाएँ भी इसी वर्गीकरण में स्थान पा जाती हैं।
- आशा शैली