इस बात से कोई इंकार नहीं करेगा कि मनुष्य अपनी असीमित इच्छाओं का गुलाम है और इसीलिए जन्म से लेकर मृत्यु तक के उसके सफर में उसकी कोई न कोई इच्छा अधूरी रह ही जाती है, जिसके फलस्वरूप उसे फिर से इस धरती पर जन्म लेना पड़ता है महापुरुषों के मतानुसार, यदि मनुष्य की आत्मा अपनी इच्छाओं व आकांक्षाओं और आवश्यकताओं के बीच के अंतर को समझ ले तो काफी हद तक वह अपने जीवन को सुखी बना सकता है हम अपनी सभी इच्छाओं को कभी भी पूरा नहीं कर सकते हैं, पर हमारी आवश्यकताएं अवश्य पूर्ण हो सकती हैं क्योंकि आवश्यकताएं वे हैं जो हमारे जीवन रथ को चलाने में अनिवार्यत: काम में आती हैं और उन्हें जुटाये बिना जीवित रह सकना संभव नहीं होता वहीं इच्छाएं वे हैं जिनके बिना कोई काम रुकता नहीं पर बड़प्पन जताने और अहंकार बढ़ाने के लिये अकारण ही उन्हें संग्रह किया जाता है आवश्यकता के लिये धन कमाना अच्छी बात है, परंतु धन की अधिक भूख यानी मन की इच्छा के अनुरूप धन मनुष्य को पतन की ओर ले जाती है इस तथ्य को हमें भूलना नहीं चाहिए इसलिए यदि हम अपनी इच्छाओं को कम कर दें तो जीवन की अनेक समस्याएं अपने आप ही सुलझ जायेंगी।
कहते हैं कि जो मनुष्य स्वयं ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ होकर सर्व की इच्छा पूर्ण कर सकता है वह सबसे बड़ा संपत्तिवान है किंतु क्या ऐसा संभव है कि कोई व्यक्ति अपनी सर्व इच्छाओं को त्यागकर ‘इच्छा मात्रम् अविद्या’ की स्थिति को प्राप्त करे अवश्य ही संभव है किंतु उसके पहले हमें यह समझना होगा कि इच्छा और आवश्यकता में अंतर क्या है इच्छाएं मन से और आवश्यकताएं शरीर से जुड़ी हैं जरूरत न होने के बावजूद भी मन अनावश्यक आवश्यकताओं का निर्माण कर लेता है और फिर ध्यान देने पर पता चलता है कि इनका अस्तित्व कभी आवश्यकता के रूप में था ही नहीं इसीलिए चिंतकों के द्वारा यह कहा गया है कि ‘इच्छाएं तो स्वप्न की भांति हैं और इनकी न पाताल में न आकाश में कहीं भी कोई जड़ें नहीं हैं तो फिर इन्हें तृप्त कैसे किया जा सकता है इसके विपरीत आवश्यकताओं की तो तृप्ति होती है और इसीलिए यह कहावत है कि ‘पेट तो भरा जा सकता है लेकिन पेटी नहीं’ उदाहरणत: जब हमें भूख लगती है तो नि:संदेह भोजन की आवश्यकता खत्म होते ही हम रुक जाते हैं क्योंकि पेट कहता है ‘बस’ लेकिन मन कहता है थोड़ा और… कितना स्वादिष्ट भोजन है यही है इच्छा मान लीजिए एक व्यक्ति भोजन की आवश्यकता को दबाकर उपवास रख लेता है किंतु वह अपने मन की इच्छाओं का दमन नहीं कर पाता क्योंकि पूर्णता तो इच्छाओं का स्वभाव ही नहीं है।
अत: यथार्थ समझ से ही हम इच्छाओं को समाप्त कर सकते हैं अन्यथा वह हमारे जीवन में बहुत बड़ा नुकसान ला सकती हैं आज समस्त मानवता अपने सुंदर मार्ग से भटक गई है और उसका मूल कारण है अतृप्त इच्छाएं जो व्यक्ति दूसरों की तुलना में अधिक संपत्तिवान बनना चाहता है वह अपनी और ईश्वर की निगाह में गिर जाता है परन्तु जो व्यक्ति निष्काम भाव परोपकार के लिये धन कमाता है वह अपने जीवन में आनंद और ईश्वर की निगाह में बहुत ऊपर उठ जाता है स्मरण रहे जीवन सीमित है और मनुष्य की कार्य क्षमता मर्यादित है अब इस अवसर को कैसे खर्च किया जाये, यह सबकी अपनी सोच पर निर्भर करता है कोई व्यर्थ की इच्छाओं से शून्य और यथार्थ आवश्यकताओं की पूर्ति से संपन्नता के मार्ग पर तीव्रता से अग्रसर होकर मंजिल प्राप्त कर सकता है और कोई अपनी अनियंत्रित इच्छाओं के पीछे भागते हुए संपूर्ण जीवन नष्ट कर सकता है हम यहाँ इच्छाओं को त्यागने की बात नहीं कर रहे है बल्कि उन्हें कम करने की बात कर रहे हैं इच्छाएं सीमित हों पर बड़ी न हों पर आप की सामर्थ्य के अनुरूप हों ताकि आप मंजिल को पूरा कर सकें व्यर्थ की इच्छाओं को त्यागकर मंजिल की ओर बढ़ें।
– अजीत कुमार सिंह