प्रार्थना से दूरी: मानवता में कमी
कुछ महान वैज्ञानिकों के सिद्धांत खोलते इस रहस्य से परत-दर-परत राज
राहुल कुमार गुप्त
आज हर अखबार और न्यूज चैनलों में मानवता से ह्रसित घटनाएं भरी पड़ी रहती हैं। इनकी टीआरपी भी इन्ही घटनाओं की भरमार से बढ़ती है, किन्तु मीडिया ने पहले की अपेक्षा कुछ बदलाव लाकर सुधार की भूमिका में एक नया कदम रखा है। सभ्यता और संस्कृति के इस समाज में मानवीय मूल्यों में लगातार गिरावट के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है। आज अपने समाज में कई ऐसी घटनाएं घटित होती हैं जो जंगली और राक्षसी सभ्यता को भी शर्मसार कर देती हैं। हम अपने वंशजों के लिए कौन सा प्रतिरूप देना चाहते हैं जिसमें वो एक पल चैन की सांस भी न लें सकें।
अध्यात्म प्रधान ये हिन्दुस्तान की ज़मीं जिसमें मानवीय गुणों से परिपूर्ण मानवों की उत्पत्ति हुआ करती थी, जो संसार के लिए प्रेरणा स्त्रोत हुआ करते थे। आज इस ज़मीं में भी बदलाव आ गया है। क्या यह बदलाव इसलिए जरूरी था कि इसी ज़मीं पर माँ सीता का जो अपमान हुआ, मर्यादा पुरुषोत्तम राम को उनकी प्रजा से घाव मिले क्या उसी की आह से त्यागी व मर्यादित शासकों और प्रशासकों की कमी हो गई।
हम अपने स्वार्थों व क्षणिक खुशी के लिए बारम्बार भ्रष्ट होते हैं। आज गुनाहगारों को जो इज्जत व सम्मान दिया जाता है शायद ही उतना सम्मान हम अपने परिजनों को देते हों। आने वाली पीढ़ी इस वातावरण से प्रभावित तो अवश्य होगी व हो रही है। ऐसे वातावरण से मानवीय समाज का रूपान्तरण तीव्रगति से आपराधिक समाज की ओर हो रहा है। गुनाहों को बढ़ावा देने के लिए हम व हमारा वर्तमान तंत्र सभी जिम्मेवार हैं।
शिक्षा पद्धति जो कि समाज सुधार की अहम कड़ी होती है आज व्यवसाय बनकर रह गयी है। संस्कृति, सदाचार व अध्यात्म के लिए इसमें कोई जगह नहीं रह गयी।
हम लोगों ने कहीं न कहीं यह निश्चित रूप से मान लिया है कि यही दुनिया है और एक बारगी का जीवन है तो हर मानवीय मूल्य को दांव पर रखकर ले लो जितने मजे लेने हों। इस धरा पर तमाम रहस्यमयी चीजों का आभास कहीं न कहीं कभी न कभी जरूर होता है पर उसे हम लोग नजर अंदाज करते हुए हम वैज्ञानिक तौर पर अपने आपको महान वैज्ञानिक मान लेते हैं।
जबकि विज्ञान तो केवल ईश्वर की बनायी सृष्टि का अध्ययन मात्र है। जीवन की सबसे छोटी इकाई कोशिका के बारे में आज तक पूर्ण जानकारियाँ नहीं मिल पायीं हैं और जो मिलीं हैं उनसे हजारों किताबें भर गयीं। कई सिद्धांत कुछ काल तक सत्य होते हैं फिर नया सिद्धांत आने के बाद वही सत्य असत्य हो जाता है। एक छोटे से कण परमाणु के बारे में भी पूर्ण रूप से अभी तक खोज नहीं हो पायी। वास्तव में विज्ञान ने तरक्की की है भौतिक सुख-सुविधा उपलब्ध करायी है, अंधविश्वासों को दूर किया है। महान शिक्षाविद व भारत के पूर्व राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन सच ही कहा था कि विज्ञान व धर्म एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। किन्तु हम लोग विज्ञान की आधी-अधूरी जानकारी लेकर उस ईश्वरीय शक्ति को झुठलाते हुए या अंजान बनते हुए केवल स्वार्थ सिद्ध करने में व भौतिक सुखों को पाने में लगे रहते हैं।
कई महान वैज्ञानिक भी उस रहस्यमयी शक्ति के आगे नतमस्तक हुए हैं। प्लांक, आंइस्टीन, न्यूटन, डाल्टन आदि जिन-जिन सिद्धांतों को लेकर जितने पश्चिम के वैज्ञानिक पापुलर हुए हैं शायद ही हमारे अपने ऋषि व मुनि हुए हों। जिन्होंने पश्चिम के वैज्ञानिकों से हजारों साल पहले ही ये सभी सिद्धांत दे चुके थे। यह वैज्ञानिक व ऋषि-मुनि ईश्वर की खोज के लिए ही प्रयत्नशील रहे। किन्तु आमजन ईश्वर को नजरअंदाज करते हुए उनके उपहार स्वरूप दिये गये मानवीय मूल्यों को यूँ ही ठुकरा रहे हैं। जो तर्कसंगत है वही धर्म है वही विज्ञान है।
विज्ञान व गीतासार की तुलना की जाए तो दोनों में काफी समानताएं हैं। भौतिक विज्ञान का ऊर्जा संरक्षण का नियम- ऊर्जा न तो पैदा होती है और न ही नष्ट होती है सिर्फ एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती है। गीता में भी है कि आत्मा न तो पैदा होती है और न ही मरती है केवल एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती है।
अर्थात आत्मा एक गतिज ऊर्जा का रूप है। क्योंकि जब तक यह शरीर में है शरीर में गतिक क्रियायें होती रहती हैं इसके निकलते ही शरीर शून्य हो जाता है। आत्मा ऊर्जा का रूप और परम ऊर्जा है ईश्वर। विज्ञान व धर्म दोनों में सृष्टि की उत्पति का जो सिद्धांत है उसमें परम ऊर्जा से ही सब निर्मित है। भौगोलिक विषमताओं के चलते विभिन्न संस्कृतियों व भाषाओं का उदय हुआ फिर भी ईश्वरीय सार सभी धर्मों में एक है। हाँ ! यह जरूर है कि इनकी परम्पराएं और पूजा-पाठ की विधियाँ भिन्न-भिन्न हैं।
सभी धर्मों में यहाँ तक की प्रत्येक मानवीय सभ्यता में प्रार्थना का प्रचलन यूँ ही नहीं है। इसका भी वैज्ञानिक कारण है। मानव जीवन व खुद के मन से बुराइयाँ दूर करने का व आत्मशक्ति प्रबल करने के लिए सबसे सहज व सरल तरीका प्रार्थना है।
प्रार्थना की प्रबलता से ही मानव में मानवता व ईश्वर से निकटता बनी रहती है। इसके भी वैज्ञानिक तथ्य हैं। आइंस्टीन के द्रव्यमान-ऊर्जा समीकरण के अनुसार ऊर्जा व द्रव्यमान परस्पर रूपान्तरित हो सकते हैं। तथा प्लांक के क्वांटम सिद्धांत के अनुसार ऊर्जा और आवृत्ति आपस में रूपान्तरित हो सकते हैं।
प्रार्थना यदि सच्चे मन से की जाती है तो उसकी आवृत्ति प्रबल होती है जिससे ऊर्जा भी प्रबल बनती है और यह प्रकाशीय ऊर्जा या उससे अधिक रफ्तार से पूरे ब्रह्मांड में पहुंच जाती है। जहाँ हम नहीं पहुंच सकते वहाँ हमारी आवाज व सोच से उत्पन्न आवृत्तियाँ ऊर्जा के रूप में पहुंच जाती हैं। जैसी सोच वैसी आवृत्ति वैसी ऊर्जा वैसा द्रव्यमान अर्थात परिणाम। प्रार्थना से हमारे प्रतिरक्षा तंत्र, इच्छाशक्ति व आत्मशक्ति प्रबल होती है। इसीलिए सभी धर्मों में कहा गया है कि मन, कर्म व वचन से पवित्र रहें। क्योंकि यही तीन तंत्र ईश्वर के सूचना तंत्र भी हैं। इसीलिए कहा गया है कि ईश्वर कण-कण में है। क्योंकि उसके सूचना तंत्र से बड़ा ब्रह्मांड में कोई दूसरा सूचना तंत्र नहीं। उसके सूचना तंत्र का हिस्सा प्रत्येक जीव है।
तो फिर क्यों अल्पकालीन खुशी के लिए हम सब अध्यात्म से उत्पन्न स्थायी खुशी से दूर भाग रहे हैं। जबकि अध्यात्म की खुशी में ईश्वर का साथ आभास होता है, मन में आत्मविश्वास व नई स्फूर्ति जाग्रत होती है। मानवीय गुणों में प्रबलता आयेगी तो स्वतः ही एक अच्छे व सकारात्मक समाज का वातावरण तैयार हो जायेगा।