एक सूफी संत थे उनका नाम था मालिक था वह बड़े ही भले इंसान थे, लोग उनका बहुत आदर करते थे लेकिन उनके पड़ोस में एक नौजवान रहता था। उसका स्वभाव बड़ा खराब था। वह सबको परेशान करता रहता था। जब लोगों ने मालिक से उसकी शिकायत की।
तो वह उसके पास गए और कहा क्यों भाई तू दूसरों को क्यों सताता है! वह नौजवान बोला मैं शाही कर्मचारी हूं मेरे मामले में दखल देने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है।
संत चुपचाप लौट आए। उस नौजवान की हिम्मत दिनों दिन बढ़ती गई वह लोगों के साथ और भी दुर्व्यवहार करने लगा। उससे तंग आकर लोग फिर मालिक के पास गए और कहा इस नौजवान ने हमारी जिंदगी हराम कर रखी है। मेहरबानी करके आप कुछ कीजिए! मालिक बोले मैं क्या करूं मेरी बात को तो वह सुनता ही नहीं उसे शाही कर्मचारी होने का बड़ा घमंड है। जब लोगों ने बहुत आग्रह किया तो मालिक ने एक बार फिर उसे समझाने को निकले।
वो थोड़ा कदम चलें ही थे कि उन्हें कहीं से आवाज सुनाई दी, मेरे दोस्त के घर पर आ आजार (अनिष्ट) ना हो संत ने यह सुना तो वह अचरज में रह गए। उसी हालत में वह नौजवान के घर पहुंचे नौजवान ने उन्हें देखते ही कहा- क्यों तुम फिर आ गए! क्या है ?
नौजवान ने मालिक को छुआ तो जैसे उसके शरीर में बिजली दौड़ गयी। उसका सारा बदन भीतर से काँप गया। उसे अंदर से आवाज आई, तू कितना भाग्यवान है मैंने तुझे अपना दोस्त कहा, फिर क्या था, उसका सारा जीवन ही बदल गया । उसने मुझे दोस्त कहा तो मुझे उसका सच्चा दोस्त बनकर दिखा देना है। यह तय करके उस नौजवान के पास जो कुछ था। उसे वह सब छोड़कर जंगल में चला गया और फिर किसी ने उसे नहीं देखा।
एक बार मालिक मक्का गए तो उन्होंने उस नौजवान को वहां देखा, वह बड़ी ही दीन-हीन दशा में फटे कपड़े पहने हुए था, पर मस्ती में झमाझम झूम रहा था मालिक कुछ कहें कि वह बोला मैं तो खुदा का बंदा हूं मैं उसी की सुनूंगा और वह जो कहेगा वही करूंगा।