सवाल है कि
राजधानी में सवाल उठ रहा है
कि किसानों ने धोती
क्यों नहीं पहन रखी है मैली-कुचैली,
क्यों नहीं है उनका गमछा तार-तार,
जैसा दिखता है किताबों में?
सवाल है कि
उनके हाथ में लाठी क्यों नहीं है
और कंधे पर गठरी,
जैसी दिखती है किताबों में?
क्यों नहीं वे पहुंचे यहां
याचक की तरह
जैसे फिल्मों में पहुंचते हैं
एक साहूकार के पास
सकुचाते-सहमते?
एक कागज पर अंगूठा लगा देने के बाद
जैसे वे होते हैं कृतज्ञ एक महाजन के प्रति
वैसे क्यों नहीं हुए अहसानमंद
कि उन्हें राजधानी की सड़कों पर चलने दिया गया
पीने दिया गया यहां का पानी
यहां की हवा में सांस लेने दिया गया
क्यों नहीं उन्होंने डर-डर कर बहुमंजिली इमारतों को देखा
और थरथराते हुए सड़कें पार कीं
जैसे फिल्मों में करता है एक किसान
गांव से शहर आकर?
सवाल है कि ये किस तरह के किसान हैं
जो सीधा तनकर खड़े होते हैं,
हर किसी से आंखों में आंखें डालकर बात करते हैं?
ये किस तरह के किसान हैं
ये किसान हैं भी या नहीं?
-संजय कुंदन की एफबी से साभार
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