हेमन्त कुमार/जी.के.चक्रवर्ती

मार्कण्डेय पुराण का एक भाग दुर्गासप्त-शती है। जिसमे सात सौ श्लोकों में भगवती दुर्गा के महत्व का वर्णन किया गया है। सप्त-शती में के प्रथम अध्याय में माता काली के प्रदुर्भाव का प्रथम उल्लेख किया गया है। प्रथम चरित्र में कहा गया है कि सृष्टि के आरम्भ के पूर्व सर्वत्र जल ही जल था तथा भगवान विष्णु योगनिद्रा का आश्रय लेकर सो रहे थे। उस समय भगवान विष्णु के कान से मैल बहा। उस मल से मधु और कैटभ नाम के दो राक्षस प्रकट हो गये। उन्होंने भगवान विष्णु की नाभि से निकले कमल पर ब्रह्मा जी को बैठे देखा। उन्होंने ब्रह्माजी को खाकर आपानी भूख मिटाने का विचार किया। इससे ब्रह्मा जी ब्रह्माजी अत्यंत भयभीत हुए और अपनी रक्षा के लिए उन्हें भगवती से योगनिद्रा में शयन करते विष्णु भगवान को जगाने और अपनी रक्षा करने के लिए प्रार्थना की। उन्होंने कहा:-
‘अतुलां योगनिद्राख्यां भक्तामिष्टाम सुरात्मिकाम स्वाहा स्वधा वषड रुपां शुभां पीयूष वादिनीम
अक्षरं बिजरूपां थ पॉलियित्रीं विनाशिनीम
त्रिधा मात्रात्मिकां मातरम सर्व मातरम
अर्ध मात्रं च सावित्री महाविधान विनोदिनीम।’
ब्रह्मा जी के द्वारा इस प्रकार प्रार्थना करने पर भगवती योगनिद्रा महाकाली के रूप विष्णु का शरीर शरीर छोड़कर अलग खड़ी हो गई। यह भगवती का सर्वप्रथम वर्णन है। इसमें उनका स्वरूप तामसी है तथा शरीर का रंग काला है।
दुर्गा सप्त-शती के मध्यम चरित्र में महिषासुर के मरने के लिए यही तामसी देवी सभी देवताओं के सम्मिलित तेज से देवी कात्यायनी दुर्गा महिषासुर मर्दिनी के रूप में प्रकट हुई। यह भगवती देवी का दूसरा स्वरूप है। जिसको महालक्ष्मी स्वरूप माना जाता है। इनको रक्त काली भी कहते हैं।
जब शुम्म और निशुम्म के नेतृत्व में राक्षस गण अत्यंत प्रवल हो गये तब देवो ने माता पार्वती से उनके संघार की प्रार्थना की। उसी समय उनके शरीर के कोश से देवी कौशिकी प्रकट हुई। जिन्होंने शुम्म-निशुम्म का वध किया। उनको भगवती का महासरस्वती स्वरूप माना जाता है। भगवती कौशिकी के माता पार्वती के शरीर से निकल जाने के बाद माता पार्वती के शरीर का रंग काला पड़ गया तब भगवान शंकर ने उन्हें काली कहकर पुकारा। इससे देवी पार्वती बुरा मान गई। फिर शंकर जी ने मल मलकर उन्हें स्नान कराया जिससे वह अत्यंत गोरी हो गई और महागौरी कहलाई।
तृतीय चरित्र में राक्षसों से हुए युद्ध में देवी काली ने चण्ड मुण्ड का वध कर दिया और उनके कटे हुए सिर लेकर देवी कौशिकी के पास आईं। इससे प्रसन्न होकर उन्होंने कहा कि तुम चंड मुंड का वध करने के कारण आज से मुंडा चामुण्डा देवी कहलाओगी। तब से माता काली का एक नाम चामुण्डा भी हो गया।
राक्षसराज शुम्भ की सेना में एक राक्षस रक्तबीज था। वह बड़ा प्रबल राक्षस था। उसको एक वरदान प्राप्त था कि उसके रक्त की जितनी बूंदें धरती पर गिरेती थीं उतने ही नये रक्तबीज राक्षस खड़े हो जाते थे। देवी के साथ उनके हुए युद्ध में पूरी युद्ध भूमि रक्तबीज राक्षसों से पट गई तब देवी ने माता काली से कहा कि अब मैं जीतने राक्षसों को मरूँगी उनमे से किसी का रक्त या वह धरती पर नही गिरना चाहिये। तब देवी जी ने अपनी जिर्वाह
का रूप विशाल किया और समस्त राक्षसों को चट कर गई। उस समय उनका स्वरूप अत्यंत उग्र और भयंकर था और वह किसी प्रकार शांत नहीं हो रही थी और ऐसा लगने लगा था कि अगर उनको किसी प्रकार रोका न गया तो आज सारे विश्व का संहार कर देंगी।

तब भगवान शंकर युद्ध भूमि में राक्षसों के शवों के बीच में आकर लेट गये। क्रोध से उन्मत्त युद्ध भूमि में दौड़ती हुई काली जी का पैर भगवान शंकर पर पड़ गया। जब भगवती काली ने देखा कि वह क्रोध के आवेग में अपने पति के हृदय पर पैर रखा खड़ी हैं तो उन्हें बहुत पश्चाताप हुआ और उनका क्रोध शांत हो गया। अपनी जीभ निकाले शिव के छाती पर पैर रखे भगवती काली का प्रसिद्ध चित्र उसी घटना की याद दिलाता है। भगवती काली का रूप उग्र जरूर है परंतु यह स्वरूप उन्होंने देवों और मनुष्यों के कल्याण के लिए धारण किया था। इसी कारण वह इस रूप में भी अपने भक्तों के लिए प्रिय और पूज्य हैं। यही देवी युग में भगवान कृष्ण के साथ-साथ माता यशोदा के यहां जन्मी थी और राजा कंस के हाथ से छूटकर विंध्याचल पर्वत पर चली गई थी जहां पर वह विंध्यवासिनी माता के रूप में विराजमान हैं।
वर्तमान समय में भगवती काली का सबसे प्रसिद्ध मंदिर दक्षिणेश्वर और काली घाट में है और काली जी कलकत्ते वाली के नाम से प्रसिद्ध है। किन्तु लखनऊ में भी भगवती काली के मंदिर है। उनमें सबसे प्राचीन और प्रसिद्ध मंदिर चौक में दहला कुआं के पास है। इसको बड़ी काली जी के मंदिर के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर एक ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। मंदिर का शिखर गया शैली में बना हुआ है। कहते हैं कि गया में मंदिर का निर्माण शंकराचार्य जी ने कराया था और फिर वे यहां आए और वर्तमान काली जी के मंदिर का निर्माण कराया था और फिर वे यहां आये और इस मंदिर के पुजारी भी गया के ब्राह्मण रहे हैं। यहां के भग्नावशेषों में भगवान लक्ष्मी नारायण की मूर्ति प्राप्त हुई थी । यह मूर्ति भी इस मंदिर में चांदी के आसन पर विराजमान है। शारदीय व चैत्र नवरात्रों में यहां देवी भक्तों की काफी भीड़ होती है।
माता का दूसरा मंदिर भी चौक क्षेत्र में है जो छोटी काली के नाम से विख्यात है। यहां की काली जी की प्रतिमा मणिलोचनी कहलाती है। छोटी काली जी का मंदिर दिगंबर जैन मंदिर तथा सरसा हवेली गोकुल नाथ जी के समीप चूड़ी वाली गली में है। छोटी काली जी की मणिलोचनी कहलाती है। छोटी काली की मणिलोचनी प्रतिमा शंगुकालीन मानी जाती है जिसमें महिषासुर मर्दिनि को अष्टभुजी रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह प्रतिमा मुस्लिम आक्रमण के समय में जल में छुपा दी गई थी। बाद में इसको कुएं से निकाल कर पुनः स्थापित किया गया है। इस मूर्ति के दर्शन दोनों नवरात्रों की अष्टमी को ही प्राप्त होते हैं।
लखनऊ में माता काली का तीसरा मंदिर घसियारी मंडी के शाही फाटक के पास स्थित कालीबाड़ी है। इसकी स्थापना 14 अगस्त 1864 को राजा दक्षिणारंजन मुखर्जी और यहां के बंगाली समाज के अथक प्रयासों से हुई थी। पहले यहां मां काली की खड़ी मूर्ति थी बाद में पंडितमधुसूदन मुखर्जी के द्वारा वर्तमान शिवा मुद्रा में आसीन भगवती काली की स्थापना की गई। यह काली मूर्ति अंचमुंडी आसन पर शिव तथा शव के ऊपर विराजमान है। तंत्र रहस्य में इस संयोजन का विशेष महत्व है। इसके साथ ही यहां 1901 में महाकाली पाठशाला की स्थापना हुई जो तीन शाखाओं में विकसित होकर तीन शिक्षा संस्थानों महिला विद्यालय अमीनाबाद, जुबली गर्ल्स कॉलेज चारबाग और ब्वायज एंग्लो विधायलय सुंदर बाग के रूप में सामने आई।