डॉ दिलीप अग्निहोत्री


यह तय था कि राजग को अवसर मिला तो अटल बिहारी ही प्रधानमंत्री बनेंगे। वही किसी ने स्वप्न में भी कांग्रेस की ओर से मनमोहन सिंह का नाम नहीं सोचा था। दूसरा दृश्य याद कीजिये। आम चुनाव के बाद यह तय हुआ कि यूपीए की सरकार बनेगी। सोनिया गांधी के नाम पर घटक दलों को आपत्ति नहीं थी। कांग्रेस में तो कहना ही क्या, मुद्दा सर्वसम्मत्ति से भी ऊपर निकल गया था। सोनिया गांधी राष्ट्रपति के पास दावा पेश करने गई। बताया जाता है कि तत्कालीन राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम सुब्रमण्यम स्वामी और कुछ अन्य संविधान विशेषज्ञों द्वारा उपलब्ध कराए गए दस्तावेज लेकर बैठे थे।
इनके अनुसार यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बनती तो न्यायपालिका में अपील की जाती। सोनिया राष्ट्रपति भवन से लौटी तो स्थिति बदल चुकी थी। अब यह तय था कि वह प्रधानमंत्री पद का दावा नहीं करेंगी। कौन बनेगा, उनकी जगह कौन बनेगा, इस पर सांसदों के सामने कोई विकल्प नहीं था। सोनिया गांधी मनमोहन सिंह के नाम का ऐलान कर चुकी थी।


नवनिर्वाचित कांग्रेसी सांसद सोनिया गांधी के नाम की गुहार लगाते रहे, लेकिन मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बन गए। ऐसे में मनमोहन सिंह के सूचना सलाहकार रहे संजय बारू ने उन्हें एक्सिडेंटल प्राइममिनिस्टर लिखा,और उनकी किताब पर फ़िल्म बन गई, तो इसमें रहस्य जैसी क्या बात है। मनमोहन सिंह के जनाधार के बारे में किसे गलतफहमी थी, कौन यह नहीं जानता था कि मनमोहन सिंह कभी ग्राम प्रधान का चुनाव भी नहीं जीत सके थे। प्रधानमंत्री पद के दोनों कार्यकाल उन्होंने राज्यसभा में रहते हुए निकाल दिए। एक बार भी लोकसभा चुनाव लड़ने की उनकी इच्छा नहीं हुई। कारण वही था, जो हेडिंग संजय बारू ने दी है।
भारत मे संसदीय प्रजातंत्र प्रणाली का प्रावधान है। इसके सैद्धांतिक रूप में यह माना जाता है कि नवनिर्वाचित बहुमत दल के लोकसभा सदस्य जिसे अपना नेता चुनेंगे, राष्ट्रपति उसे ही प्रधानमंत्री बनने के लिए आमन्त्रित करते है। व्यवहारिक स्थिति में प्रायः आम चुनाव नेतृत्व के नाम पर होता है। जवाहर लाल नेहरू, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, अटल बिहारी वाजपेयी और नरेंद्र मोदी इसी आधार पर प्रधानमंत्री बने थे। विचार करिए, मनमोहन सिंह इन दोनों स्थितियों में कहीं फिट नहीं थी। उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष की कृपा प्राप्त हुई, इसलिए वह प्रधानमंत्री बने थे।
कुछ लोग उनके कार्य बता रहे है, दस वर्ष शासन करने को उनकी अपनी हैसियत का प्रमाण बता रहे है। लेकिन इन सबके पीछे मुख्य कारण एक ही था। उन्हें सोनिया और राहुल गांधी की कृपा प्राप्त थी। यदि हाईकमान की भृकुटि टेढ़ी होती तो मनमोहन सिंह के साथ एक भी सांसद दिखाई नहीं देता। यहां तक कि वह स्वयं राज्यसभा के ही सदस्य थे। ऐसे में संजय बारू ने किसी रहस्य से पर्दा नहीं उठाया है।
यह दिलचस्प है कि पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा ने अपने को भी एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर कहा है। बात गलत नहीं लगती। वह सदैव प्रांतीय स्तर के नेता रहे है। उन्नीस सौ छियानवे में विशुद्ध जोड़ तोड़ हुआ था। इसमें अंततः देवगौड़ा के नाम पर सहमति बन गई। इसी प्रकार इंद्रकुमार गुजराल का भाग्योदय हुआ था। भाजपा ने देवगौड़ा के बेटे एचडी कुमारस्वामी को एक्सीडेंटल चीफ मिनिस्टर कहा है। यह भी सच्चाई है।इसे स्वीकार करना चाहिए। देवगौड़ा ने इसे स्वीकार किया। उन्नीस सौ छियानवे के आम चुनाव में किसी को बहुमत नहीं मिला था। गैर कांग्रेसी और गैर भाजपा ने सरकार बनाई, जिसने देवगौड़ा को प्रधानमंत्री पद के लिए चुना था। संजय बारू की किताब पर बनी फिल्म का ट्रेलर मुंबई में रिलीज किया गया। मनमोहन सिंह दो हजार चार से से दो हजार चौदह तक भारत के प्रधानमंत्री थे। जबकि संजय बारू दो हजार चार से से दो हजार आठ तक मनमोहन सिंह के सूचना सलाहकार थे।
फ़िल्म के ट्रेलर में दो बात प्रमुखता से दिखाई जा रही है। एक यह कि मनमोहन सिंह इस्तीफा देना चाहते है। दूसरी यह कि सोनिया को लगता है कि राहुल को प्रधानमंत्री बनाने की अनुकूल परिस्थिति नहीं है। इन तथ्यों में भी सच्चाई हो सकती है। मनमोहन सिंह ने कहा भी था कि वह राहुल गांधी के लिए कभी भी कुर्सी छोड़ने को तैयार है। इसमें संदेह नहीं कि मनमोहन सिंह स्वयं ईमानदार थे। लेकिन उन्हें अनेक घोटालों के आरोपियों का बचाव भी करना पड़ा था। ऐसे में उन्होंने शायद पद छोड़ने का मन बनाया हो। एक यही कार्य ऐसा था जिसे वह अपनी मर्जी से कर सकते थे। लेकिन इसे भी उन्होंने हाईकमान के प्रति वफादारी के प्रतिकूल माना। आरोप झेलते रहे, लेकिन कुर्सी नहीं छोड़ी। सोनिया गांधी भी राहुल को उत्तराधिकारी मान चुकी थी। यह बात राहुल को कांग्रेस अध्यक्ष बनाने के फैसले से बाद में प्रमाणित भी हुई थी। लेकिन वह घोटालों में घिरी सरकार की कमान राहुल को सौंपने बचती नजर आ रही थी। वैसे राहुल भी इस जिम्मेदारी से बचना चाहते थे। मनमोहन सिंह के कार्यकाल में उनका रुतबा कम भी नहीं था।
मनमोहन सिंह के बचाव में कहा जा रहा है कि दो हजार आठ तक उन्होंने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के अनुसार कार्य किया। इस तर्क में कोई दम नहीं है। न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत चलना सोनिया और राहुल गांधी की चिंता थी। मनमोहन सिंह की बला से ,सरकार चाहे जब गिर जाती। दुज़रे तर्क दिया गया कि जब उनकी सरकार को सपा का समर्थन मिल गया तो धीरे-धीरे उन्होंने कम्युनिस्ट और दस जनपथ से किनारा किया। यह हास्यास्पद दलील है। क्या सपा के समर्थन से मनमोहन सिंह के पीछे बहुमत आ गया था, फिर वही सच्चाई सामने थी। मनमोहन सिंह के बहुमत का इंतजाम दस जनपथ से ही हुआ था। एक पल के लिए भी वह उसकी अनदेखी नहीं कर सकते थे। योजनाओं के संबन्ध में यूपीए की चेयरपर्सन की अंतिम स्वीकृति मनमोहन सिंह के लिए निर्णायक होती थी।
वह बिना तिकड़म के दस वर्ष तक प्रधानमंत्री रहे। इसका कारण स्पष्ट था। कांग्रेस हाईकमान की वजह से उनके विरुद्ध किसी ने आवाज उठाने का साहस नहीं किया। दूसरे कार्यकाल में भी मनमोहन सिंह की यही छवि कायम थी। दो हजार नौ के आम चुनाव में कांग्रेस को कर्जमाफी और मनरेगा के लाभ मिला था। लेकिन दस वर्ष में ऐसा एक भी कदम नहीं उठा जिससे मनमोहन सिंह की स्थापित छवि में बदलाव दिखाई दिया हो। देश के सबसे बड़े घोटाले इसी दौरान हुए। आर्थिक मंदी का भारत पर कम असर हुआ, इसमें मनमोहन सिंह की सरकार का कमाल नहीं था। भारतीयों में बचत की आदत ने स्थिति संभाली थी। अमेरिका के साथ परमाणु समझौता भी अंजाम तक नहीं पहुंच सका था।कांग्रेस के लिए बेहतर यही होगा कि वह संजय बारू की सच्चाई स्वीकार करे, वह जितना विरोध करेगी, उतना है फ़िल्म का प्रचार होगा।