बृजेश सिंह तोमर
डोनाल्ड ट्रम्प की नीतियां हमेशा से विवादित रही हैं, लेकिन दूसरी बार राष्ट्रपति बनने के बाद उनके फैसले और ज्यादा कठोर और अप्रत्याशित हो गए हैं। हाल ही में उन्होंने अमेरिका में रह रहे भारतीयों को बेड़ियां डालकर वापस भेजने का जो आदेश दिया, वह न सिर्फ निंदनीय बल्कि वैश्विक मानवाधिकारों के लिए भी गंभीर चुनौती बनकर सामने आया है। यह फैसला केवल भारतीयों तक सीमित नहीं है, बल्कि ट्रम्प प्रशासन की अप्रवासी-विरोधी नीति का हिस्सा है, जिसने मेक्सिको, अफ्रीकी देशों और मुस्लिम बहुल देशों के नागरिकों को भी निशाने पर लिया है। ट्रम्प की इस कठोर नीति से यह स्पष्ट है कि वे “अमेरिका फर्स्ट” के नारे को अब ‘अमेरिका ओनली’ में बदलने की कोशिश कर रहे हैं।
आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका में लगभग 40 लाख भारतीय प्रवासी रहते हैं, जिनमें से करीब 10 लाख लोग ग्रीन कार्ड या नागरिकता की प्रक्रिया में हैं। इनमें आईटी प्रोफेशनल्स, डॉक्टर, रिसर्च स्कॉलर्स और बिजनेसमैन शामिल हैं, जो अमेरिकी अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। अकेले सिलिकॉन वैली में काम करने वाले भारतीयों का अनुपात 30% से अधिक है, और फॉर्च्यून 500 कंपनियों में भारतीय सीईओ की संख्या 50 से अधिक हो चुकी है। इसके बावजूद ट्रम्प प्रशासन ने न केवल वीजा प्रक्रिया को कठोर किया, बल्कि अब भारतीयों को जबरन निष्कासित करने की कार्रवाई भी शुरू कर दी है। हाल ही में टेक्सास, न्यूयॉर्क और कैलिफोर्निया से करीब 1200 भारतीयों को गिरफ्तार कर डिटेंशन सेंटर्स में रखा गया और फिर जबरन भारत भेजा गया। न्यूयॉर्क टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार, इन डिटेंशन सेंटर्स में खराब खान-पान, भीड़भाड़ और मानसिक प्रताड़ना जैसी अमानवीय परिस्थितियाँ बनी हुई हैं। कई प्रवासी परिवारों को बिना किसी पूर्व सूचना के अलग कर दिया गया, जिससे अनेक भारतीय बच्चे अमेरिकी धरती पर अनाथ होने की कगार पर पहुंच गए हैं।
ट्रम्प प्रशासन प्रवासियों को हटाकर “स्थानीय रोजगार बचाने” का दावा कर रहा है, लेकिन विशेषज्ञों की मानें तो अमेरिकी अर्थव्यवस्था को इससे भारी नुकसान होगा। भारतीय मूल के लोग न केवल अमेरिका के टेक और हेल्थ सेक्टर को मजबूती दे रहे थे, बल्कि वे हर साल अरबों डॉलर का कर भी अदा कर रहे थे। 2019 में भारतीय प्रवासियों ने अमेरिकी अर्थव्यवस्था में लगभग 1.2 बिलियन डॉलर का योगदान दिया। H1-B वीजा पर निर्भर कंपनियों ने 2022 में अमेरिकी टेक इंडस्ट्री को 50 बिलियन डॉलर से अधिक का मुनाफा दिया। भारतीय प्रवासी औसतन अमेरिकी नागरिकों से 15% अधिक टैक्स अदा करते हैं, जिससे सामाजिक सुरक्षा प्रणाली को सीधा लाभ मिलता है। अगर यह निष्कासन नीति जारी रहती है, तो अमेरिका को न केवल तकनीकी और चिकित्सा क्षेत्र में योग्य पेशेवरों की भारी कमी झेलनी पड़ेगी, बल्कि इसका सीधा असर स्टार्टअप और निवेश की संभावनाओं पर भी पड़ेगा।
इस फैसले का असर भारत-अमेरिका संबंधों पर भी पड़ सकता है। भारत और अमेरिका के बीच व्यापार और रणनीतिक साझेदारी गहरी होती जा रही थी, लेकिन ट्रम्प की नीतियों ने इसमें अविश्वास का माहौल बना दिया है। भारत-अमेरिका द्विपक्षीय व्यापार 2023 में $150 बिलियन तक पहुँचने की उम्मीद थी, लेकिन इस फैसले से इसमें गिरावट आ सकती है। भारतीय आईटी सेक्टर अमेरिका में हर साल 100,000 से अधिक नौकरियां पैदा करता है, लेकिन अप्रवासी-विरोधी नीति के कारण इस क्षेत्र में अनिश्चितता बढ़ गई है। भारतीय कंपनियों ने 2022 में अमेरिकी अर्थव्यवस्था में $15 बिलियन का प्रत्यक्ष निवेश किया, लेकिन अब वे अपने निवेश को एशियाई और यूरोपीय बाजारों में शिफ्ट करने पर विचार कर रही हैं। भारत के प्रधानमंत्री ने कई मौकों पर ट्रम्प प्रशासन से इस मुद्दे पर चर्चा की, लेकिन ट्रम्प के ‘अहंकारी राष्ट्रवाद’ के आगे कूटनीति बौनी साबित हो रही है।
ट्रम्प के इस रवैये से यह भी स्पष्ट होता है कि वे अंतरराष्ट्रीय संस्थानों और गठबंधनों को कमजोर करने पर आमादा हैं। 2020 में ट्रम्प प्रशासन ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) को अमेरिकी फंडिंग से बाहर कर दिया, जिससे वैश्विक स्वास्थ्य प्रयासों को बड़ा झटका लगा। 2021 में उन्होंने अमेरिका को पेरिस जलवायु समझौते से अलग कर दिया, जिससे वैश्विक जलवायु प्रयास कमजोर पड़ गए। हाल ही में ट्रम्प ने इंटरनेशनल क्रिमिनल कोर्ट (ICC) पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया, जिससे अंतरराष्ट्रीय न्याय प्रणाली को चुनौती मिली। ट्रम्प प्रशासन का तर्क है कि ये संस्थाएं अमेरिका के हितों के खिलाफ काम कर रही हैं, जबकि सच्चाई यह है कि ट्रम्प किसी भी अंतरराष्ट्रीय जिम्मेदारी से बचना चाहते हैं। यह रवैया अमेरिका को वैश्विक शक्ति से अलग-थलग करने की ओर ले जा रहा है।
अगर इस फैसले को व्यापक संदर्भ में देखें, तो ट्रम्प प्रशासन का पूरा कार्यकाल एक किस्म की ‘संकीर्ण राष्ट्रवादिता’ का उदाहरण है, जो बहुपक्षीय कूटनीति के लिए घातक साबित हो रही है। यह केवल अप्रवासी भारतीयों का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह मानवाधिकारों, वैश्विक सहयोग और अमेरिका की लोकतांत्रिक छवि के क्षरण का संकेत है। संयुक्त राष्ट्र ने इस फैसले को “मानवाधिकारों का उल्लंघन” करार दिया। यूरोपीय संघ ने इसे “अमानवीय” बताते हुए इसकी आलोचना की। एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच ने इसे “राष्ट्रवाद की आड़ में प्रवासियों पर हमला” कहा।
ट्रम्प का राष्ट्रवादी एजेंडा अमेरिका को विश्व मंच पर अलग-थलग कर रहा है। अगर यह रवैया जारी रहा, तो निकट भविष्य में अमेरिका को अपने पारंपरिक सहयोगियों से भी कटौती झेलनी पड़ सकती है। चीन और यूरोप पहले ही अमेरिका के खिलाफ अपने व्यापारिक संबंध मजबूत कर रहे हैं। ब्रिक्स देशों (भारत, रूस, चीन, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका) ने अमेरिका पर अपनी निर्भरता कम करने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। अगर अमेरिका प्रवासी-विरोधी नीति पर चलता रहा, तो वह वैश्विक नेतृत्व की अपनी भूमिका खो सकता है।
ट्रम्प के फैसले ने यह साबित कर दिया कि राष्ट्रवाद अगर अंधा हो जाए, तो वह मानवता के खिलाफ भी खड़ा हो सकता है। यह समय है, जब वैश्विक समुदाय को एकजुट होकर इस “अमानवीय राष्ट्रवाद” का विरोध करना चाहिए, अन्यथा कल का अमेरिका किसी और देश की नियति बन सकता है।