आशीष हरि
धारणाओं और मान्यताओं का तल हमारे मन तक ही सीमित होता है। हम जिस व्यक्ति का दिल से सम्मान करते हैं उसकी कही गई बातों पर भी भरोसा रखते हैं। जिस स्रोत को हम सटीक और विश्वसनीय मानते हैं, उससे प्रसारित जानकारियों और सूचनाओं पर ज्यादा दिमाग न लगाते हुए सहजता से विश्वास कर लेते हैं।
मान्यताएं कैसे जन्म लेती हैं:
मान्यताओं की नींव हमारे पारिवारिक सामाजिक आर्थिक धार्मिक क्षेत्रीय परिवेश, मन बुद्धि के स्तर, आयु, लिंग और स्वभाव की स्थिति के अनुरूप निर्मित होती है। किसी समूह विशेष अथवा व्यक्तियों की मान्यताओं में आमतौर पर वैचारिक समानताएं अवश्य दिखती हैं। यही वजह है कि भारत सहित दुनिया के सभी देशों में हजारों–लाखों संप्रदाय दिखते हैं। जिन्हें हम आम बोलचाल में धर्म या मजहब के नाम से पुकारते हैं।
धार्मिक मान्यताओं का आधार ईश्वर के अवतारों जैसे राम–कृष्ण आदि, ईश्वर पुत्र जैसे जीसस, धर्मग्रंथ जैसे वेद पुराण उपनिषद, कुरान, बाइबिल, गुरुवाणी, संतों–महात्माओं और आध्यात्मिक गुरुओं की वाणी और उद्बोधन हुआ करते हैं।
जो जिस धर्म को मानने वाले परिवार में पैदा होता है वो उसी धर्म के संस्कारों और रीति रिवाजों को जाने-अनजाने अपना लेता है। ऐसे लोग अपने धार्मिक लेखों, कथा कहानियों और इतिहास पर बगैर किसी शक शुबहे के विश्वास करते हैं जिसे आस्था और श्रद्धा का नाम दिया जाता है। ये धार्मिक आस्था उस वक्त कट्टर और वीभत्स रूप धारण करती है जब संप्रदाय विशेष को मानने वाले लोग अपने संप्रदाय में प्रचलित पूजा–पद्धतियों और ईश्वर को सर्वश्रेष्ठ मानने का दंभ भरते हैं और अन्य संप्रदाय या धर्म- महजब को निकृष्ट करार देकर उसकी निंदा करते हैं।
कहने का अर्थ ये है कि मानने का सारा खेल मन और बुद्धि में चल रहा है। हम जिसे सच या झूठ, सही या गलत मानते हैं, उसके पक्ष में ढेरों तथ्य, जानकारियां, आंकड़े और अनगिनत तर्क प्रस्तुत कर देते हैं। यहां तक अपनी कही और मानी जाने वाली बातों के लिए कभी–कभी तर्क भी गढ़ लिए जाते हैं।
सार रूप में बात इतनी ही है कि धर्म के मामले में हम सिर्फ चीजों को मान भर लेते हैं, लेकिन ये खोजने–जानने की जरूरत नहीं समझते कि जिसे हम मान रहे हैं असल में वो है क्या। अखिर सत्य है क्या?
जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं, चखते, सूंघते या स्पर्श करते हैं, उन चीजों को हम अपने मन में बैठी स्मृतियों के पटल पर रखकर उनका मिलान करते हैं और त्वरित विश्लेषण के बाद उनकी सटीक पहचान कर लेते हैं। इसे हम मन–बुद्धि की सहायता से समझते, पहचानते और जानते हैं। वहीं, परमात्मा और ईश्वर को जानने के मामले में सारी ज्ञानेद्रियां विफल हैं। क्योंकि उस परमात्मा रूपी असीम शक्ति को जानने के लिए बेहद सीमित दायरे में काम करने वाली इंद्रियों के लिए ये असंभव है। उदाहरण के लिए लोग अक्सर पूछते हैं कि क्या किसी ने परमात्मा या भगवान के दर्शन किए हैं। आस्तिक समझे जाने वाले लोगों से ऐसे प्रश्न अक्सर किए भी जाते हैं। इसमें वो बेचारे निरुत्तर हो जाते हैं। अब आप ही बताइए कि जिन क्षणभंगुर आंखों से कुछ सौ मीटर से ज्यादा न देखा जा सकता हो, उनसे उस असीम, अपरंपार, व्यापक चेतना परब्रह्म के दर्शन क्या संभव है?
नहीं न?
फिर भी हम ईश्वर के अस्तित्व को आसानी से मान लेते हैं। ईश्वर या परमात्मा अस्तित्व है भी कि नहीं, इसे जानने के बारे में हमारे मन में दूर–दूर तक खयाल भी नहीं आता।
सनातन धर्म में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, दुर्गा, लक्ष्मी, राम, कृष्ण, गणेश और हनुमान को आराध्य मानकर पूजा जाता है। साथ 33 करोड़ देवी–देवताओं का जिक्र भी होता है। इसलिए अन्य मजहब के लोग (जो शायद कटटरपंथी भी हो सकते हैं) हिन्दू देवी–देवताओं का मजाक उड़ाने की कोशिश करते हैं। कहते हैं कि इनके तो ढेर सारे भगवान हैं। कोई वानर रूप में तो कोई हाथी की सूंड़ वाला है। वाहन और शोभा बढ़ाने के लिए चूहे से लेकर उल्लू तक का ऐसा प्रयोग किया गया है मानो किसी जीव को छोड़ा ही नहीं गया।
अच्छा, खुद को हिंदू कहने वाले भी इन चीजों पर ज्यादा कुछ बोलने की हालत में नहीं होते क्योंकि उनकी जानकारी भी ज्यादा नहीं होती। ज्ञान की दृष्टि से सोचने–विचारने पर ही इसका जवाब मिल सकता है। गणेश, लक्ष्मी, शिव, विष्णु और हनुमान समेत दर्जनों देवी–देवता ईश्वर के साकार रूप हैं।
आमतौर पर इन भगवानों और देवी देवताओं को सुंदर प्रतिमाओं और साज श्रंगार के साथ मंदिरों में स्थापित किया जाता है। ये प्रतिमाएं किसी मूर्तिकार की मनोहारी कल्पनाओं से निर्मित होती हैं, जिन्हें वह अपने शिल्प से साकार करता है। निराकार ब्रह्म अथवा परमात्मा को पांच कर्मेंद्रियों और पांच ज्ञानेंद्रियों से देखा, सुना, चखा और स्पर्श नहीं किया जा सकता। परमात्मा तीनों काल वर्तमान, भूतकाल और भविष्यकाल, तीन गुण सत्, रजस और तमस से रहित और मन–बुद्धि से परे की परम चेतना का नाम है। इसलिए परमात्मा या ईश्वर को माना जा सकता है कि उसका अस्तित्व है, लेकिन सही अर्थों में परमचेतना का अस्तित्व जानने के लिए किसी श्रोत्रिय ब्रह्म निष्ठ सद्गुरु के मार्गदर्शन में साधना और तपस्या के मार्ग पर ईमानदारी से चलना होता है।
ये तभी संभव है जब ईश्वर के प्रति प्रेम की चाह मन में जागृत हो, उसे खोजने–तलाशने की तड़प मन में जगे और मन में वैराग्य और निर्मलता का वास हो। इन गुणों को आत्मसात करने के बाद ही कोई साधक ज्ञान का अधिकारी बनता है। ज्ञान किसका, उस परमचैतन्य परब्रह्म का। जिसे महज प्रतिमाओं के साकार रूप में देखा जाता है या फिर मान लिया जाता है कि भगवान कहीं किसी लोक या आसमान में रहते हैं।
प्राचीन भारत में मंदिरों का निर्माण शांतिप्रद वातावरण का आनंद लेने के लिए होता था। मंदिरों में भव्य और आकर्षक प्रतिमाओं की स्थापना इसलिए की जाती थी ताकि वहां आने भक्त अपने इष्ट और आराघ्य देवी–देवताओं के सामने बैठ त्राटक करें और ध्यान–एकाग्रता का अभ्यास कर सके। मंदिरों और घरों में होने वाली मूर्तिपूजा धर्म और अध्यात्म के मार्ग की महज शुरुआत भर है। इस तरह की तमाम चीजें लगभग सभी संप्रदायों और धर्मों में देखने की मिलती हैं।
अधिसंख्य लोग अपने–अपने धर्म मजहब के अनुसार पूजन पद्धतियों की परंपराओं को तो बढ़ चढ़कर निभाते हैं। लेकिन ये भी सच है कि वो इससे आगे बढ़कर परमचैतन्य परमात्मा का बोध करने के जतन भी नहीं करते। इस तरह भगवान के मामले में चीजें मान्यता और विश्वास से आगे नहीं बढ़ पातीं। शायद इसलिए जानने के मुकाबले ब्रह्म को महज मान लेना ज्यादा आसान है। दुनिया के ज्यादातर लोग आखिर यही तो कर भी रहे हैं।
परमात्मा को कैसे जानें:
अब सवाल ये है कि परमात्मा को जाना कैसे जाए। इसकी शुरुआत बाहर से नहीं बल्कि खुद से करनी होगी। शरीर और मन के उपकरण को साधना की आग में तपाकर ये अंतर्यात्रा की जाती है। अब ये कहां जाकर खत्म होती है? कहीं भी नहीं। खुद से शुरू होकर खुद पर खत्म हो जाती है। तभी ज्ञान का सूर्य दैदीप्यमान होता है और प्रज्ञा जान जाती है कि परमात्मा और मैं ( शरीर, मन, बुद्धि, प्राण से अलग ) एक ही हूं।
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