वीर विनोद छाबड़ा
एक नहीं अनेक नायिकाओं ने ट्रेजिक किरदार किये हैं. लेकिन जिस ऊंचाई को मीना कुमारी ने छुआ, बहुत कम ने. वस्तुतः मीना महज़ बेहतरीन अदाकारा याद नहीं की जाती हैं, वो ट्रेजडी का पर्याय भी रहीं. जन्म ही ट्रैजिक रहा. बदसूरत और काली. पिता अली बक्श ने तो बेटा चाहा था. घर में मुफ़लिसी का मातम और ऊपर से फिर एक लड़की. छोड़ आये एक अनाथालय में. बीवी ने श्राप दिया कि तुझे दोज़ख़ भी नसीब न हो. अली बक्श खुदा के खौफ से डर गए और वापस बीवी की गोद में डाल दिया.
मीना बड़ी हुई तो पढ़ना चाहा. लेकिन सवाल उठा खर्चा कौन उठाएगा? तब मीना महज़बीन थीं. खेलने-कूदने की महज छह साल की उम्र में ही स्टूडियो के चक्कर लगवाने शुरू कर दिए. बचपन तो देखा ही नहीं. उसे तो पता ही नहीं चला कि वो कब जवान हुई. दूसरों के लिए ही जीती रही. दूसरे उसे इस्तेमाल करते रहे और वो इस्तेमाल होती रही. किसी को मालूम नहीं था कि उस नन्हीं मासूम की नानी नानी रविंद्र नाथ टैगोर के छोटे भाई की बेटी थी. लेकिन हालात ने कुछ ऐसा पलटा खाया कि सब तिनका तिनका हो गया.
मर्दों की च्वॉइस के मामले में मीना फेल रही. महज़ 19 साल की मीना ने 34 साल के कमाल अमरोही को चाहा. पहले से शादी-शुदा और तीन बच्चों के बाप. एक बंटा हुआ शख़्स. शादी के बाद ही मीना को अहसास हुआ कि वस्तुतः उन्होंने कमाल को कभी चाहा ही नहीं था. और न कमाल ने उनको. उन्हें कई बार पीटा गया. सख्त बंदिशें लगायी गयीं. कई साल हुज़्ज़तें सहीं. फिर आख़िर कमाल का घर छोड़ ही दिया.
Tribute to #Meenakumari ji on her 86th Birth Anniversary🙏💕
Meena Kumari Over the years Part 1
A montage of clips from
(1941- 1960)
In her 3 decade illustrious career ,she starred in more than 90 films .
Tribute to the Doyenne of Indian Cinema 🙏💕#ThursdayMotivation pic.twitter.com/QjVlsnDSEH— Meena Kumari_fc (@FcMeena) August 1, 2019
मीना की ज़िंदगी में दूसरा शख़्स आया – धर्मेंद्र. वो भी शादी-शुदा था मगर उम्र में कम. दोनों ने सात फ़िल्में की – पूर्णिमा, काजल, चंदन का पालना, फूल और पत्थर, मैं भी लड़की हूं, मझली दीदी और बहारों की मंज़िल. मीना ने धर्मेन्द्र को समझाया कि यह दुनिया उगते सूरज को सलाम करती है डूबते को नहीं. उसका शीन-काफ़ और तलफ़्फ़ुज़ दुरुस्त किया. लेकिन वो किसी और के लिए उन्हें छोड़ गया.
मीना को ज़रूरत थी एक ऐसे शख्स की जो खुद को भूल कर चौबीस घंटे उनके साथ रहे. ऐसा शख्स उन्हें न गुलज़ार में दिखा और न सावन कुमार टाक में. और फिर अपनी उमगें कुचल कर उनके पास बैठने की फुर्सत किसे?
होश संभाला तो अवसाद में घिरा पाया. डॉक्टर ने अच्छी नींद के लिये एक घूंट ब्रांडी का नुस्खा लिखा. लेकिन मीना ने उसे आधा गिलास बना दिया. जब समझाया गया तो वो डिटोल की शीशी में मदिरा भरने लगीं. खुद को मदिरा के हवाले कर दिया. इस बीच एक समय ऐसा भी आया जब मीना को एकाएक ज़िंदगी से फिर प्यार हो गया. यह 1968 की बात है. वो इंग्लैंड और फिर स्विट्ज़रलैंड गयीं. डॉ शैला शर्लोक्स ने उनमें नई उम्मीद जगाई. जब मीना वहां से लौट रही थीं तो डॉ ने वार्निंग दी – अगर मरने की इच्छा हो तो शराब पी लेना.
दुर्भाग्य से फिल्मों में भी उन्हें सियापे और त्रासदी से भरपूर किरदार मिले. जबकि वो हंसना चाहती थीं. वो सियापे को मुकद्दर समझ कर जीने लगीं. ‘साहब बीबी और ग़ुलाम’ की ‘छोटी बहु’ सरीखी ज़िंदगी अपना ली. उन्होंने इतने परफेक्शन के साथ इस किरदार को जीया था कि यह कालजई हो गया. बरसों तक मीना हर छोटी-बड़ी नायिका के लिए रोल मॉडल बनी रहीं. उनकी ज़िंदगी एक किताब हो गयी. प्रसिद्ध लेखक-पत्रकार-एडीटर विनोद मेहता ने तो लिख भी दी – A Classic Biography (1972).
ट्रेजडी की लीक से हट कर ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार के साथ ‘आज़ाद’ की. हलकी-फुल्की कॉमेडी भूमिका करके दिलीप तो अवसाद से निकल गए, लेकिन बेचारी मीना फंसी रहीं. अवसाद से निकलने के लिए जाने कब वो शायरा बन गयीं. नाज़ के नाम से लिखतीं रहीं.
मीना की बेहतरीन अदाकारी की बुनियाद में उनकी आवाज़ का भी बड़ा योगदान रहा. अल्फ़ाज़ उनके गले से नहीं दिल से निकलते थे, भोगा हुआ यथार्थ. दर्द में डूबे शब्द. ऐसा जादुई इफ़ेक्ट बना कि सुनने वाला मंत्र मुग्ध होकर किसी दूसरी दुनिया में पहुंच गया. उनके सामने दिलीप कुमार नर्वस हो जाते थे. राजकुमार तो अपने संवाद ही भूल जाते थे.
सुनील दत्त और नर्गिस ने मीना जी को नई ज़िंदगी देने की पहल की. छह साल से डिब्बे में बंद कमाल अमरोही की ‘पाकीज़ा’ फिर शुरू कराई. जब रिलीज़ हुई तो मीना की तबियत काफ़ी नासाज़ थी. लेकिन उन्हें इत्मीनान हुआ कि उनकी उम्मीद के मुताबिक़ फिल्म पहले ही शो में क्लासिक घोषित हो गयी. फिर महीना भी न गुज़रा था कि 31 मार्च 1972 को मीना लीवर सिरॉसिस का शिकार बन गयीं. ट्रेजडी क्वीन को श्रद्धांजलि देने के लिए बॉक्स ऑफिस पर लंबी कतारें सज गयीं. कमाल अमरोही मालामाल हो गए. मीना का दिया कई लोगों ने खाया था. लेकिन बड़ी मुश्किल से हॉस्पिटल का तीस हज़ार बिल चुकाया गया, तब जाकर मीना की लाश उठ सकी. 01 अगस्त 1932 को जन्मीं मीना महज़ 39 साल की छोटी सी उम्र में परलोकवासी हो गयीं. यह कोई उम्र नहीं होती है ऊपर जाने की और वो भी मीना जैसी आला दर्जे की अदाकारा के लिए.
यह मीना जी के ही पैर थे जिनके लिए कहा गया – इन्हें ज़मीन पर न रखियेगा, मैले हो जाएंगे. मीना की जी अदाकारी का लेवल इतना ऊंचा था कि उन्हें फ़िल्मफ़ेयर ने 12 बार बेस्ट एक्ट्रेस के लिए नामांकित किया और चार बार विजेता घोषित किया – परिणीता, बैजू बावरा, साहब बीवी और गुलाम और काजल.
मीना ने कुल 95 फिल्मों में काम किया. इनमें यादगार हैं – दुश्मन, बहु-बेगम, नूरजहां, चित्रलेखा, भीगी रात, बेनज़ीर, ग़ज़ल, दिल एक मंदिर, आरती, शरारत, यहूदी, शारदा, बादबान, कोहिनूर, चांदनी चौक, मेरे अपने, गोमती के किनारे, दो बीघा ज़मीन, एक ही रास्ता आदि.