नया पुराना दौर : अजीत कुमार सिंह
जिस दौर में बेटियों के हाथों पर चढ़ने वाली मेहंदी का रंग भादो में बरसने के मेघों की दया पर टिका होता था, उस दौर भी लोग दो-दो सौ कोस चल कर कुम्भ नहाने पहुँचते थे बनिहारी कर के बटोरे गए दो दो पैसों के बल पर बुढ़ापे का सबसे बड़ा सपना पूरा करने निकलती महिलाएं तो टोले भर की बहुएं आ कर पाँव छूतीं… कोई पैरों में महावर लगा देती तो कोई अपने हाथों केश संवार देती… जैसे विवाह के दिन किसी कन्या का श्रृंगार हो रहा हो। कुम्भ का स्नान तो छोड़िये, स्नान करने की सोच लेने भर से लोग अपने समाज के लिए पूज्य हो जाते थे समय बदला है, जीवनशैली बदली है, सामाजिक साहचर्य का भाव भी दरक गया है, पर कुम्भ नहान के लिए निकलते बुजुर्ग अभी भी अपने साथ पड़ोस की श्रद्धा,सम्मान ले कर जाते हैं।
बहुत दिन नहीं हुए, अभी पिछली ही पीढ़ी के उम्रदराज लोग आग तापने बैठते तो कहते “तीन बच्चे तो बियहा गए बस छोटकी बेटी का लगन लग जाय तो हम भी गंगा नहा लें” जैसे गंगा नहा लेना ही जीवन की पूर्णता हो… हाँ भाई साहब गंगा नहाने को लोक ने सदैव इसी भाव से देखा है कुम्भ इसी भाव का उच्चतम बिन्दु है लोक अपने पर्वों में श्रद्धा और उल्लास का संगम गढ़ता है कुम्भ केवल गंगा मइया में डुबकी लगा लेने से पूरा नहीं होता कुम्भ पूरा होता है जब बाबा टोले भर के नाती-पोतों के लिए पतला वाला माला और मुट्ठी भर रक्षासूत्र खरीद लें जब काकी पड़ोस की चनेसर बो के होने वाले बच्चे के लिए झुनझुना खरीद लें गंगा मइया की ओर बार बार हाथ जोड़ कर अपने बच्चों के लिए दुनिया जहान का सुख मांगते मांगते काकी को कुछ याद आये और वह देवरानी की भौजाई की छोटकी निपूती पतोह के लिए बेटा मांगते मांगते रो पड़े, तब कुम्भ का नहान पूरा होता है यह देश अपने मूल चरित्र में बहुत पवित्र है, बहुत ही निर्मल, करुण, कोमल… कुम्भ में एक दूसरे का हाथ थाम कर धीरे धीरे चलते असंख्य बृद्ध जोड़े दिखते हैं पूछिये तो पता चलता है कि दो सौ कोस दूर से आये हैं और साथ में कोई नहीं किसके भरोसे? तो उत्तर मिलेगा एक दूसरे के… अस्सी साल का बूढ़ा व्यक्ति जो स्वयं बिना लाठी के चल नहीं पाता, वह पत्नी का सहारा बना हुआ है और उसी आयु की पत्नी पति के लिए अन्नपूर्णा बनी साथ चल रही है आप सोचते रह जाएंगे कि कैसे सम्भव होता है यह, पर कोई उत्तर नहीं मिलेगा वस्तुतः यही धर्म की शक्ति है वे घर से निकल पड़ते हैं और बस हो जाता है…
गाँव देहात के सामान्य जन के लिए कुम्भ साधु संतों का मेला भी है हजारों लोग तो केवल बाबाओं के सामूहिक दर्शन के सात्विक लोभ में जाते हैं नहान में भाँति भाँति के बाबा लोग… कोई जटा वाले, कोई बिना जटा वाले… कोई दाढ़ी वाले, कोई बिना दाढ़ी वाले… कोई दूध की भांति धवल निर्मल तो कोई देह भर में भभूत लपेटे हुए… किसी के शरीर पर दस मनई के बराबर कपड़ा लदा है तो कोई नङ्ग धड़ंग… हर भगवाधारी को देवता मानने वाला निश्छल देहाती मन सबके चरणधूलि ले लेना चाहता है, पर हो नहीं पाता वे दूर से ही प्रणाम करते हैं…
कभी कभी सोचता हूँ, मध्यकाल में जब सभ्यता अपने इतिहास के सबसे बड़े दुर्दिन से गुजर रही थी, तब भी विदेशी सत्ता के केंद्र दिल्ली आगरा के उतने निकट प्रयाग में, कुम्भ के समय लाखों निहत्थे हिंदुओं का श्राद्ध भाव से जुट जाना कितनी बड़ी बात रही होगी… बाबर और औरंगजेब के समय में कुम्भ बर्बरता के सामने सभ्यता की चुनौती ही थी अकबर का सन 1575 में प्रयाग का नाम बदल कर इलाहाबाद करना वस्तुतः हिंदुओं से उनके सबसे बड़े तीर्थ को छीन लेने का प्रयास ही तो था ऐसा पहली बार नहीं हो रहा था, कभी संस्कृत शिक्षा का गढ़ रहे अजयमेरु में अपने एक फकीर को बैठा कर उसे इसी तरह हिंदुओं से छीना गया था पर इस बार हिन्दू डिगे नहीं अकबर की कागजें चीखती रहीं, पर नहान में जुटती लाखों की भीड़ हर बार इलाहाबाद को प्रयाग बना देती थीं यह कुम्भ की शक्ति थी।
एक गुरुवर्ष भर पर लगने वाला कुम्भ मेला सभ्यता के लिए नई ऊर्जा प्राप्त करने की बेला है एक ही घाट पर अपने पापों का प्रायश्चित और सुखद भविष्य की याचना करते राजा राजा रंक सभ्यता के विरुद्ध गढ़े गए समस्त साम्प्रदायिक कुतर्कों का मौन उत्तर तो देते ही हैं, यह स्वतःस्फूर्त विशाल आयोजन सृष्टि के अंत तक सभ्यता के पुष्पित पल्लवित होते रहने का भरोसा और राह में आने वाली बर्बर बाधाओं से संघर्ष का साहस और शक्ति देता है सदैव विश्व का कल्याण चाहने वाली परम्परा के करोड़ों लोग जब एक घाट पर ‘धर्म की जय’ मनाएंगे तो देव कैसे न सुनेंगे भला?विपत्तियां जीवन का हिस्सा हैं दुर्घटनाएं भी होती रही हैं और शोक की लहर हमें बार बार डुबोती भी रही है पर इससे कुछ रुकता नहीं कुछ रुकेगा नहीं… शेष जो हरि इच्छा…