जी के चक्रवर्ती
जैसा कि हिंदी साहित्य में अ का अर्थ नही से होता जैसे अ निद्रा, अर्थात नींद न आना या सोया न हो और इसी तरह से घोर का अर्थ भयानक होता है तो वहीं तन्त्र का अर्थ परम्परा से जुड़े हुए आगम ग्रन्थ हैं। वैसे तो तन्त्र शब्द के अर्थ बहुत विस्तृत है। यदि हम तंत्र को हिन्दू एवं बौद्ध परम्परा से जोड़ कर देखें तो जैन धर्म, सिख धर्म, तिब्बत की बोन परम्परा, दाओ-परम्परा एवं जापान की शिन्तो परम्परा में भी पायी जाती है। वैसे भारतीय परम्परा में किसी भी व्यवस्थित ग्रन्थ, सिद्धान्त, विधि, उपकरण, तकनीक या कार्यप्रणाली को भी तन्त्र कहा जाता हैं। जब हम मंत्र की बात करते हैं तो यह वह शब्द मालाएं हैं जिनके उच्चारण से एक विशेष प्रकार की ध्वनि उत्पन्न होती है।
आज हमारे विज्ञान ने भी यह सिद्ध कर दिया है कि ध्वनि में एक अपूर्व शक्ति होती है। एक साथ ध्वनि उत्पन्न होने से जहां पर ध्वनि या नाद उत्पन्न हो रहा है उस स्थान पर और उससे कुछ दूरी तक वायुमंडल में एक छतरी नुमा आवरण से ढक जाता है जिसे हम अपनी आंखों से तो नही देख सकते हैं इसलिये इस कथन का साक्ष्य हम प्रस्तुत नही कर सकते हैं लेकिन एक और दूसरे माध्यम से ध्वनि की शक्ति को प्रमाण स्वरूप देखना समझना चाहें तो इसमे यदि हम एक सैनिक टुकड़ी के मार्चपास करते समय सैनिकों के बूटों के एक साथ ऊपर उठने और गिरने से पैदा होने वाली ध्वनि में इतनी प्रचंड शक्ति होती है कि एक मजबूत से मजबूत पुल को भी ढहा सकती है इसलिये एक सैनिक टुकड़ी को नदी के पुल पर से पार करते समय मार्चपास नही कराया जाता है।
जब हम तंत्र की बात करते हैं तो यह क्रिया शारीरिक क्रियाओं द्वारा साधना करने की बात होती है जैसे हम और आप प्रातः योगिक क्रियाएं करते है जिससे हमारा स्वास्थ ठीक रहता है इसी तरह अनेको क्रियाएं होती है और इन सभी प्रकार की क्रियाओं का प्रभाव पड़ना तय सी बात है। यहां यह भी एक अलग विषय है कि कोई साधन बहुत ही डरावना या कहे हम मनुष्यों द्वारा अधिकतर किये जाने वाले क्रियाओं से भिन्न होने से हमे बहुत ही घृणा, विकार या अवैज्ञानिक प्रतीत होने से हम लोगों को अस्वीकार्य करते है।
ऐसे ही क्रियाएं हम आप मे से कुछ लोगों द्वारा किया जाता है जिसके कारण उन्हें हम तिरस्कार की भावना से हम उन्हें अपने से दूर कर देतें हैं या एसे लोग स्वयं हम से आप से दूर रह कर अपनी क्रियाओं में लिप्त रहते हैं और ऐसे लोगों को हम अघोरी कहते हैं। अर्थात जो किलिष्ट न होकर सहज हो।
समाज के ऐसे लोग साधारण सामाजिक लोग के वस्तियों से दूर श्मशान के सन्नाटे में जाकर तंत्र-क्रियाओं को अंजाम देते हैं कियूंकि यह सभी क्रियाएं हम साधारण लोगों की रोजमर्रे की क्रियाओं से भिन्न होते है और हम सामाजिक लोगों की जिंदगी में इससे कोई विरूपता उत्पन्न न हो और सामाजिक लोगों द्वारा उनके कार्यों में किसी प्रकार का व्यवधान उत्पन्न नही किया जा सके। यहां यह प्रश्न भी उठता है कि वे इस श्मशान में जीवन निर्वाह करने के लिए क्या खाते पीते हैं? एसे लोग जिन्होंने सभी तरह के सांसारिक कर्मो का त्याग कर दिया हो उनके लिए खाने-पीनी उठने-बैठने और सोने जगने के लिए कोई निर्धारित मानदंड नही होता है।
हम और आप सांसारिक साधारण लोग जैसे अपना अपने शरीर के उत्सर्ग चीजों को खा-पी नही सकते हैं और यही चीजें वे निर्विकार रूप से ग्रहण करते हैं जोकि हम और आप साधरण मनुष्य ऐसा नही कर सकते हैं क्योंकि यह घृणित है। वैसे वास्तव में कहा जाए तो अघोर विद्या डरावनी नहीं है। उसका स्वरूप हमे डरावना लगता है।
जिसाकि अघोर का अर्थ हम ऊपर व्यक्त कर चुके हैं। अघोरी जिसमें कोई भेदभाव नहीं हो। अघोरी मनुष्य बनने की पहली शर्त भी यही है कि आप अपने मन से घृणा को निकाल कर फेंक दों। अघोर क्रिया एक व्यक्ति को सहज और सरल बना कर सत्य की ओर अग्रसर करती है। कोई भी अघोरी नग्न अवस्था मे भी सहज रूप से रहते है ऐसी अवस्था मे उनके गुप्त अंगों पर वासना का कोई प्रभाव नही होता है लेकिन हमारे समाज के लोगों में अघोरियों को लेकर अनेकों तरह की बातें
फैली हैं।
ऐसा कहने सुनने में आता है कि अघोरी लोग हम मर्त्य मानवों के मांस तक का सेवन कर लेता है। ऐसा करने के पीछे यही तर्क है कि श्मशानों में उनके भोजन का कोई दूसरा विकल्प न होने से उनके लिए वहां मर्त्य मनुष्यों के मांस सहजता से उपलब्ध होता है दूसरी बात यह है कि इस साधना में व्यक्ति को अपने मन से घृणा को निकालना होता है जिनसे साधारणतः समाज घृणा करता है अघोरी लोग उन्हें अपनाते हैं। हम लोग श्मशान, लाश, मुर्दे के मांस व कफ़न से घृणा करते हैं लेकिन अघोरी इन्हें अपनाते है। वैसे मूलत: अघोरी उसे कहते हैं जो शमशान जैसी भयावह नीरव विचित्र स्थान पर भी उसी सहजता से रहता है जैसे हम और आप साधारण लोग अपने-अपने घरों में रहते हैं।