दिसम्बर
साल के आखिरी छोर पर
अटका है दिसम्बर
बाहर से धक्का देकर
भीतर ढ़केल देता है वक्त
अंतर्मन के सन्नाटे में
सुनना अपने होने का शोर
अचम्भित कर देता है
भीतर तक सिकोड़
देता है दिसम्बर
बचपन की मासूमियत
जवानी की आसमान छूने की आकांक्षा
शेष में सब पा लेने की आतुरता
सबको बुहार कर भीतर शांति से
बिठा देता है दिसम्बर
मानो एक दिन पूरा जीवन हो
ऐसे हर दिन जी लेना
सांसो के उतार-चढ़ाव की कलाबाजी को
कौतुकता से देखना
जैसे धरती घूमती है चुपचाप, ऐसे घूमना
लय-ताल से गुनगुनाते विदा लेकर
जाने का उत्सव है दिसम्बर
-आनंद अभिषेक-