इसमें दो राय नहीं कि विभिन्न मौसमों के समय-समय पर सामने आने वाले रौद्र रूप से पूरी दुनिया संकटों का सामना करने के लिए मजबूर है। इसके प्रकोप घटाने की दिशा में गंभीरता से काम करने की जरूरत विश्व के अनेक मंचों पर उठाई जाती रही है। संयुक्त राष्ट्र समितियां, बहुचर्चित पेरिस समझौते के अलावा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कई सम्मेलन और गहन शोध – अनुसंधान होते रहे पर विडबना ही रही कि करीब एक दशक से अधिक समय से चलते रहे इस क्रम के बाद भी किसी ठोस परिणाम की तो बात ही अलग, सकारात्मक प्रगति तक नहीं हो सकी। अब विशेषज्ञों का ही कहना है कि ऐसी निष्क्रियता के कारण विश्व तीन वर्ष पहले के मुकाबले ज्यादा बदतर स्थिति में है।
भारत में भी इसका ताजा प्रभाव इसी बात से समझा जा सकता है कि इस होली के दूसरे ही दिन से पड़ रही जबर्दस्त गर्मी ने लोगों के पसीने छुड़ा रखे हैं जबकि पिछले वर्षों में इन दिनों भी ठंड की सुरसुरी बनी रहती थी। पिछले पांच सालों के दौरान वैश्विक स्तर पर तापमान वैसे भी बहुत तेजी के साथ बढ़ा है। इसकी वजह से दुनिया के कई भागों में आग लगने, बाढ़ आने व अन्य चरम मौसमी आपदाएं घटित होती रही हैं।
मौसम के कोप का उदाहरण विश्व मौसम विज्ञान संगठन के इस निष्कर्ष से भी स्पष्ट होता है कि पिछला दशक (2015-2024) दस सबसे गर्म समय था। इससे यह भी पता लगता है कि 2030 तक उत्सर्जन कटौती का 43 प्रतिशत का लक्ष्य अब कहीं आगे बढ़ चुका है। ऐसे में यह गंभीरता से सोचने का विषय है कि समस्या से जुड़े सारे तथ्य एकदम साफ होने के बावजूद समाधान क्यों नहीं निकल पा रहा है।
बचाव की मुहिम को आगे बढ़ाने की असलियत ये है कि इससे महत्वपूर्ण रूप से जुड़े पेरिस समझौते से खुद अमेरिका अलग हो गया है जबकि पिछले तीन-चार सालों से बाढ़, तूफान, वनाग्नि आदि के रूप में वह भी इसकी गहरी मार झेलता आ रहा है। दूसरी तरफ जलवायु परिवर्तन से जुड़े लक्ष्यों के लिए 2030 तक हर साल 387 अरब डॉलर तक के खर्च की जरूरत होगी लेकिन इतनी बड़ी रकम जुटा पाना संभव नहीं लगता। यानी जबानी जमाखर्च के अलावा इस मामले में किसी खास उपलब्धि की उम्मीद नहीं की जा सकती।