धर्म से इसका कोई लेना-देना नहीं
नवाब शुजाउद्दौला की कई बेगमात थीं लेकिन पहली बेगम उम्मतुज़ ज़हरा बानो के बाद दूसरी बेगम रानी छत्रकुँवर थीं जोकि रैकवार ठाकुर घराने से थीं और नवाब से शादी के बाद मलका-ए-आलिया के नाम से जानी गयीं। ये आसिफद्दौला की सौतेली माँ थीं। मलका-ए-आलिया के बेटे थे यमीनुद्दौला। मलका चाहती थीं कि उनका बेटा हुकूमत की बाग़डोर संभाले। जिस कारण मलका ने मुस्लिम और हिन्दू दोनों धर्मों के हिसाब से सन् 1797 ई. में मन्नत मांगी कि अगर बेटा नवाब बन गया तो वह हज़रत अली(अ.स.) के नाम से एक बस्ती बसायेंगी और उस बस्ती में हनुमान जी का मन्दिर बनवायेंगी। इन्ही दोनों के नाम से मांगने का कारण ये था कि मुस्लिम में हज़रत अली(अ.स.) और हिन्दुओं में हनुमान जी दोनों को ताक़त प्रतीक माना जाता है।
आसिफद्दौला के बाद उनके बेटे नवाब वज़ीर अली खाँ को तख़्त पर ज़्यादा दिन तक अंग्रज़ों ने बैठने नहीं दिया और उनकी जगह यमीनुद्दौला को तख़्त पर बैठा दिया जोकि सआदत अली खाँ द्वितीय के नाम से जाने गये। अब मलका-ए-आलिया की मन्नत पूरी हो चुकी थी इसलिए उन्होंने हज़रत अली(अ.स.) के नाम पर ‘अलीगंज’ नामक बस्ती बसाई और हनुमानजी का मन्दिर बनवाया, जिसपर चाँद-तारा लगवाया, जिसे आज लोग अलीगंज का पुराना हनुमान जी का मन्दिर के नाम से जानते हैं।
आसिफउद्दौला के दौर में अज़ादारी (मोहर्रम) सिर्फ 12 दिन की मनायी जाती थी। ख़ास पुराने लखनऊ में नवाबिन कर्बलावालों की याद में पूरे 12 दिन खाने के रूप में तबर्रुक (प्रसाद) बांटा करते थे। जिसे आप भण्डारा भी कह सकते हैं। तेरहवें दिन यानि 13 मोहर्रम 1216 हिजरी (मई का महीना सन् 1801 ई.) इमाम के तीजे के दूसरे दिन कर्बला वालों की याद में उक्त हनुमान मन्दिर के करीब पानी (प्याऊ) और तबर्रुक (प्रसाद) बड़े पैमाने पर बांटा गया और सरकारी छुट्टी का भी एलान किया गया ताकि गोमती नदी के दूसरी तरफ के लोग भी आकर इस भण्डारे में भाग ले सकें। जिस दिन उस मन्दिर के करीब ये सबील (भण्डारा) लगी, वह दिन जेठ माह का पहला मंगल था। दूसरी तरफ, नवाब सआदत अली खाँ मंगल के दिन पैदा हुए थे, इस कारण उनकी माँ उनको मंगलू कहती थीं। सआदत अली खाँ के नाम मंगलू को कुछ इतिहासकारों ने मंगलदेव से जोड़कर देखा। यही से बड़े मंगल की शुरुवात हुई।
(किताब ‘अज़ादारी और अवध’ से, लेखक -एस.एन.लाल)