अगर किसी एक व्यक्ति में इस सृष्टि की सारी विशेषताओं का जटिल समिश्रण मिलता है तो वह शिव हैं। यदि आपने शिव को स्वीकार कर लिया तो आप जीवन से परे जा सकते हैं। आमतौर पर पूरी दुनिया में लोग जिसे भी दैवीय या दिव्य मानते हैं, उसका वर्णन हमेशा अच्छे रूप में ही करते हैं, लेकिन यदि आप शिव पुराण पढ़ें तो आपको उसमें कहीं भी शिव का उल्लेख मात्र अच्छे या मात्र बुरे के तौर पर नहीं मिलेगा।
उनका उल्लेख सुंदरमूर्ति के तौर पर हुआ है, जिसका मतलब वह ‘सबसे सुंदर’ हैं। लेकिन इसी के साथ उसमें यह भी उल्लेख है कि शिव से ज्यादा भयावह भी कोई और नहीं हो सकता। क्योंकि वहां उन्हें एक अघोरी के रूप में भी दर्शाया गया है। यदि आपने शिव को स्वीकार कर लिया तो आप जीवन से परे जा सकते हैं।
इंसान के जीवन का सबसे बड़ा संघर्ष यह चुनने का प्रयास है कि क्या सुंदर है और क्या असुंदर, क्या अच्छा है और क्या बुरा? लेकिन यदि आप हर वस्तु के इस संगम वाले व्यक्तित्व को केवल ‘स्वीकार कर लेते हैं तो फिर आपको कोई समस्या नहीं रहेगी। वे सबसे सुंदर हैं तो सबसे भद्दे और बदसूरत भी। यदि वे सबसे बड़े योगी व तपस्वी हैं तो सबसे बड़े गृहस्थ भी वे सबसे अनुशासित भी हैं, सबसे बड़े नशेड़ी भी वे महान नर्तक हैं तो पूर्णत स्थिर भी इस दुनिया में देवता, दानव, राक्षस सहित हर तरह के प्राणी उनकी उपासना करते हैं। शिव की कहानियों में शिव का सार निहित है। उनके लिए कुछ भी घिनौना व अरुचिकर नहीं है।
शिव ने मृत शरीर पर बैठकर अघोरियों की तरह साधना की है। घोर का मतलब है- भयंकर और अघोरी का मतलब है कि ‘जो भयंकरता से परे हो’ शिव एक अघोरी हैं, वह भयंकरता से परे हैं। शिव हर चीज और सबको अपनाते हैं। ऐसा वे किसी सहानुभूति, करुणा या भावना के चलते नहीं करते। वे सहज रूप से ऐसा करते हैं, क्योंकि वे जीवन की तरह हैं। जीवन सहज ही हरेक को गले लगाता व अपनाता है।
समस्या सिर्फ आपके साथ है कि आप किसे अपनाएं व किसे छोड़ें, इस प्रश्न में उलझे हैं। यह समस्या मानसिक है जीवन की नहीं। यदि आपका शत्रु आपके बगल में बैठा है तो आपके भीतर मौजूद जीवन को उससे भी कोई दिक्कत नहीं होगी अस्तित्व के स्तर पर देखा जाए तो कोई समस्या नहीं है। भारत में आध्यात्मिक प्रकृति की बात करें तो हर किसी का एक ही लक्ष्य रहा है – मुक्ति आज भी हर व्यक्ति मुक्ति शब्द का अर्थ जानता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि देश में आध्यात्मिक विकास और मानवीय चेतना को आकार देने का काम शिव ने किया है।
आदियोगी शिव ने ही इस संभावना को जन्म दिया कि मानव जाति अपने मौजूदा अस्तित्व की सीमाओं से भी आगे जा सकती है। संसारिकता में रहना है, लेकिन इसी का होकर नहीं रह जाना है। अपने शरीर और दिमाग को हर संभव इस्तेमाल करना है, लेकिन उसके बीज कष्टों को भोगने की आवश्यकता नहीं है। कहने का अर्थ यह है कि जीने का एक और भी तरीका है। शिव ही थे, जिन्होंने मानव मन में योग का बोया।
योग विद्या के मुताबिक 15 हजार वर्ष से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव विभोर कर देने वाला नृत्य किया। वे कुछ देर परमानंद में पागलों की तरह नृत्य करते, फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो जाते। उनके इस अनोखे अनुभव के बारे में कोई कुछ नहीं जानता था। अंतत लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और वे इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे उनके पास पहुंचने लगे। लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा क्योंकि आदि योगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर थे उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्दगिर्द क्या हो रहा है! उन लोगों ने वहीं कुछ देर इंतजार किया और फिर थक हारकर वापस लौट आए। लेकिन उन लोगों में से सात लोग (सप्तऋषि) ऐसे थे, जो थोड़े ही किस्म के थे।
उन्होंने ठान लिया कि ये शिव से जानकर ही रहेंगे। अंत में उन्होंने शिव से प्रार्थना की, उन्हें इस रहस्य के बारे में बताएं। शिव ने उनकी बात नहीं मानी और कहने लगे, ‘यदि तुम अपनी इस स्थिति में लाखों वर्ष भी बिता दोगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाओगे इसके लिए अधिक तैयारी की आवश्यकता है।
- सद्गुरू जग्गी वासुदेव