राहुल कुमार गुप्ता
कुंभ का नाम आते ही मन में जो सर्वप्रथम इमेज बनकर उभरती है वो है समुद्र मंथन से उत्पन्न अमृत भरे कुंभ की। कुंभ का सामान्यतः अर्थ कलश या जल से भरा घड़ा भी होता है। कुंभ शब्द का पौराणिक और आध्यात्मिक महत्व बहुत ही विस्तृत है। जब से हमारा सौरमंडल अपने अस्तित्व में आया तब से ही कुंभ का अस्तित्व है। हाँ! इसके महत्व का उल्लेख इसके अस्तित्व में आने के कई वर्षों बाद सैकड़ों भारतीय ऋषि-मुनियों के कई सालों के सतत तपोबल और शोध के कारण संभव हो पाया। विज्ञान में प्रचलित कई सिद्धांत जो इन तीन-चार शताब्दियों से देखने को मिल रहे हैं और उनमें पश्चिम के वैज्ञानिकों को प्रसिद्धि मिलती रही है। इनमें से कई सिद्धांत भारतीय ऋषि-मुनियों नें पहले ही अपने ग्रंथों में बता रखी है। चाहे वो 1808 में प्रतिपादित डाल्टन का परमाणु वाद हो जो कि महर्षि कणादि के कण सिद्धांत से सैकड़ों सालों बाद अपने अस्तित्व में आया, या 1687 के न्यूटन का गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत से सैकड़ों साल पहले भारतीय ऋषि ब्रह्मगुप्त ने अपनी पुस्तक ध्यानगृहोपदेश में गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की विस्तृत व्याख्या की थी। जीवन की उत्पत्ति की संबंध में 1919 में ए.आई. ओपैरिन ने अपनी पुस्तक ‘ओरिजन ऑफ द लाइफ’ में जीवन की उत्पत्ति समुद्र से बताई जबकि भारतीय ऋषि-मुनियों ने यह सर्वप्रथम बताया था। बृहदारण्यक उपनिषद में इसकी विस्तृत जानकारी समाहित है। नागार्जुन का शून्यवाद का सिद्धांत और आइंस्टीन का सापेक्षता सिद्धांत में भी समानताएं।
विज्ञान में ऐसे बहुत से सिद्धांत बने जिनमें भारतीय ऋषि-मुनियों का भी काफी योगदान रहा। भले ही फेम पश्चिम के आधुनिक वैज्ञानिक पा रहे हों। पर यह बात सोचने लायक है कि जब भारत में विज्ञान हजारों वर्षों पहले अपने चरम पर था तो उसमें एक धर्म की महत्ता ढूंढने की बजाय उन सिद्धांतों को अमल पे लाने की जरूरत है जो भारतीय ऋषि-मुनियों के सैकड़ों वर्षों के सतत शोध और तप का परिणाम रही हैं। जो मात्र एक धर्म के लिए नहीं हैं वरन् पूरी मानवता और पृथ्वी के लिए हैं। कुंभ के महत्व को अगर हिंदू धर्म के अनुसार देखा जाता है तो यह देवासुर संग्राम के बाद हुए समुद्र मंथन से उत्पन्न अमृत कलश की कथा से संबंधित नजर आता है। किन्तु हकीकत इतनी ही नहीं है। कुंभ के यह पर्व जो ज्योतिष विज्ञान (खगोलीय परिघटना) पर आधारित हैं कोई साधारण सी बात नहीं है।
संपूर्ण मानवता और पूरी पृथ्वी के हितार्थ इन खगोलीय घटनओं का महत्व है जो भले प्रत्यक्ष (स्थूल रूप) नजर न आती हों लेकिन सूक्ष्म रूप में यह पृथ्वी के लिए अति उपयोगी हैं। कुंभ की यह खगोलीय परिघटनाएं भी इसरो, नासा व अन्य देश के खगोलीय वैज्ञानिकों के लिए खास हो सकती हैं। इस महत्वपूर्ण विषय पर केंद्रित होने की जरूरत है। संभावित है कि कुंभ पर्व की इन खगोलीय घटनाओं पर वार्महोल और कॉस्मिक स्ट्रिंग जैसी अबूझ खगोलीय पहेली इन्हीं समयों पर एक्टिव होती हों। जिस प्रकार हर ताले के लिए एक विशेष चाभी होती है उसी प्रकार इन वार्महोल और कॉस्मिक स्ट्रिंग जैसी कुछ खगोलीय परिकल्पनाओं के लिए संभव है कुछ विशेष पल होते होंगे जब यह एक्टिव होते होंगे। धार्मिक ग्रंथ पूर्णतः मिथकों से भरे नहीं हैं उनमें ज्ञान की भी असीम ज्योतियाँ भी हैं।
वार्महोल एक काल्पनिक सुरंग है जो दो दूरस्थ बिंदुओं को जोड़ती है। यदि वार्महोल वास्तव में होते हैं तो वे ब्रह्मांड में लंबी दूरी तय करने का एक संभावित तरीका हो सकते हैं। इसी प्रकार कॉस्मिक स्ट्रिंग ब्रह्मांड में फैली हुई ऊर्जा की धाराएं हैं। यदि कॉस्मिक स्ट्रिंग वास्तव में होती हैं तो उनके द्वारा भी ब्रह्मांड में लंबी-लंबी दूरी आसानी से तय की जा सकती हैं। जहां प्रकाश के वेग द्वारा भी हम करोड़ों साल में नहीं पहुंच सकते वहां इन वार्महोल और कॉस्मिक स्ट्रिंग के द्वारा हम ब्रह्मांड के दूरस्थ क्षेत्रों में बहुत कम समय में पहुंच सकते हैं। इस सिद्धांत को ईश सत्ता वाले सभी धर्मों में स्वीकारा गया है। एक लोक से दूसरे लोक में जाने की कई कथाएं प्रचलित हैं।किन्तु इन्हें हम मिथक कहकर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। अभी विज्ञान के पास जो उपलब्ध मशीनें हैं वो प्रकाश के वेग तक को माप सकने में सक्षम हैं अभी हमारे पास ऐसी कोई युक्ति नहीं है जिससे हम प्रकाश के वेग से सफर तय कर सकें। यह भी विज्ञान के लिए एक बड़ा चैलेंज है।विज्ञान ऐसे ही तमाम चैलेंज को लेकर उन्हें हल करते हुए आगे बढ़ते रहने की दिशा में कार्य करता रहता है। देर-सबेर उसे कोई न कोई सफलता जरूर मिल जाती है। क्योंकि वह अपने कार्य में सतत रूप से लगा होता है। समुद्र मंथन से उत्पन्न अमृत कलश भी अप्रत्यक्ष रूप से सतत रहने और मंथन करते रहने की सीख देता है। कुंभ संपूर्णता का भी प्रतीक है अर्थात मंथन की अंतिम प्रक्रिया के फलस्वरूप ही अमृतरूपी कुंभ का प्राकट्य होता है।
मंथन ब्रह्मांड की एक सतत प्रक्रिया भी है। जीव और अजीव दोनों में मंथन सतत प्रक्रिया की तरह सदैव गतिमान रहता है। मंथन की प्रक्रिया से ही ब्रह्मांड का अस्तित्व है। मंथन की प्रक्रिया जैसे ही समाप्त ब्रह्मांड अपने प्राकट्य तत्व में समा जाएगा। मंथन की इस प्रक्रिया के बीच सभी शोध और अन्वेषण होते रहे हैं, होते रहेंगे। स्थूल रूप में जीवों में जीवन के लिए शरीर द्रव/ रक्त का परिसंचरण (मंथन) का होना जरूरी है। अजीवों में इलेक्ट्रॉन का या ऊर्जा के किसी रूप का संचरण (मंथन) बना ही रहता है। कोई भी चीज शांत नहीं है उसके अंदर मंथन का विद्यमान होना ही उसके अस्तित्व को बनाता है। मैमल्स में हृदय कुंभाकार होता है और उसमें चार वेश्म होते हैं। दो बाएं और दो दाएं। बाएं वेश्म में शुद्ध रक्त और दाएं में अशुद्ध रक्त होता है। इन्हीं के मंथन(परिसंचरण) से शरीर में जीवन ऊर्जा की पूर्ति होती है। आत्म मंथन का भी यही कार्य है अशुद्धता निकालकर आत्मा को पवित्र करना।
हृदय को आत्मा का निवास स्थान बताया गया है। कुंभ पर्व भी चार स्थानों पर हृदय के इन्हीं चार वेश्मों की तरह स्थित हैं। मायापुरी (हरिद्वार), प्रयाग, उज्जैन, नासिक। कुंभ पर्व आत्मज्ञान और आत्मसाक्षात्कार का भी पर्व है और संपूर्ण मानव समाज के लिए ज्ञान के परिसंचरण तंत्र का भी पर्व है। कुंभ पृथ्वी में नई ऊर्जा के संचार का भी पर्व है।जिन अक्षांशों और देशांतर में यह पवित्र स्थल स्थित हैं पृथ्वी के उन समस्त अक्षांशों और देशांतरों में स्थित स्थलों में भी इस महापर्व का इस महान खगोलीय परिघटनाओं का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से फर्क जरूर पड़ता होगा। इन शोधों के बारे में तो भारतीय ऋषि-मुनियों ने धार्मिक ग्रंथों में इनके लाभ के बारे में बता रखा है। अब नये युग और नयी दुनिया को व्यवाहरिकता में इसे खोजना या सिद्ध करना बाकी है।
ज्योतिष विज्ञान के अनुसार इन नदी तीर्थों में एक विशेष खगोलीय परिघटना के दौरान ही कुंभ महापर्व आवर्ती रूप में आता है। यह खगोलीय परिघटनाएं अपने-अपने क्षेत्र में 12 वर्ष बाद पुनः देखने में आती है। हिन्दू धर्म ग्रंथों में ऐसा मानना है कि अंतरिक्ष में सूर्य, चंद्र, गुरू और शनि आदि ग्रहों की विशेष स्थितियों में आने से ब्रह्मांड में उच्च लोकों के द्वार खुल जाते हैं। ऐसा मानना है कि कुंभमहापर्व के दौरान नदी तीर्थों में स्नान और प्रवास से लोग जन्म-जन्मांतरों के चक्र से निजात पा लेते हैं। क्योंकि इस दौरान अंतरिक्ष परिघटनाओं में विशेष स्थिति बनने के कारण हो सकता है वार्म होल और कॉस्मिक स्ट्रिंग जैसी अवधारणाएं एक्टिव होकर इन क्षेत्रों में अपनी कुछ असाधारण ऊर्जाएं भेजती हों, और ये असाधारण ऊर्जाएं कुछ लोगों के आत्मतत्व में समाहित हो जाती हों और मृत्यु के बाद उसे भवसागर से पार कराने में मददगार हों। किसी अन्य उच्चलोक में पहुंचाकर पृथ्वी के जीवन-मरण के चक्र से आजाद कर दे।
कुंभ की परंपरा अति प्राचीन है, ज्योतिष विज्ञान के आने से पहले की ही जान पड़ती है। लेकिन महत्व ज्योतिष विज्ञान के बाद ही उभर कर समक्ष आया। कुंभ के विषय में कई कथाएं प्रचलित हैं। अमृत कुंभ का उल्लेख ऋग्वेद(10/87/7),शुक्ल यजुर्वेद(19/89), सामवेद(6/13), अथर्वेद(4/34/7,16/6/8,19/53/3) महाभारत, रामायण, गरुड़ पुराण, स्कंद पुराण, पद्मपुराण, भागवत पुराण, छांदोग्य उपनिषद, बृहदारण्यक उपनिषद, कल्पसूत्र, जातक परिजात, धर्मशास्त्र, मनुस्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति आदि में मिलता है जिसमें कुंभ के महत्व को धार्मिक रूप देते हुए बहुत ही लाभकारी बताया गया है। यहां स्नान करने और अन्नदान देने से पितरों की प्रसन्नता का भी उल्लेख है। पितरों के प्रसन्न होने से भौतिक दुनिया में बहुत सी मनोकामनाएं पूरी होने की बात भी इन ग्रंथों में कही गई है। किंतु कुंभ मेले का प्रारंभ कब से हुआ यह कह पाना जल्दबाजी होगी। मेले के प्रारंभ से संबंधित कोई लिखित तथ्य किसी ग्रंथ में नहीं है जबकि चारों स्थानों में कुंभ के महत्व का जिक्र जरूर मिलता है।आदि गुरू शंकराचार्य के प्रयासों के बाद से कुंभ मेले का महत्व बढ़ा और कुंभ मेलों की प्रक्रिया सतत रूप से अपने विद्यमान स्वरूप में है।
नारद पुराण (266/44) में महाकुंभ का प्रारंभ स्थान मायापुरी(हरिद्वार) से माना गया है। जिसमें कहा गया है कि जब गुरु कुंभ राशि में एवं सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तो हरिद्वार में कुंभ पर्व पड़ता है। इसके अनुसार यह हरि की पौड़ी में स्नान का सबसे पवित्र समय होता है।
फिर जब गुरु मेष राशि में तथा सुर्य एवं चन्द्रमा माघ मास में मकर राशि में प्रवेश करते हैं तब प्रयाग में कुंभ पर्व मनाया जाता है। ऋग्वेद में इसका जिक्र है कि जहां यमुना और गंगा मिलती हैं उस प्रयाग संगम में कुंभ पर्व में स्नान करने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
फिर अगला कुंभ मेला नासिक में गोदावरी नदी के किनारे में लगता है। जब गुरु एवं सूर्य सिंह राशि में प्रवेश करते हैं तब नासिक में मेला लगता है।
चतुर्थ कुंभ मेला अवंतिका या उज्जैनी में क्षिप्रा नदी के किनारे लगता है। जब गुरु सिंह राशि व सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। ज्योतिष विज्ञान के अनुसार हर वारह वर्ष में इन स्थानों पर ऐसी विशेष खगोलीय परिस्थितियों का आगमन होता है। वर्तमान समय में योगी सरकार प्रथम द्वारा 12 वर्ष में पड़ने वाले कुंभ को महाकुंभ और 6 वर्ष में पड़ने वाले अर्द्धकुंभ को कुंभ का नाम दिया गया है।
2025 में उत्तर प्रदेश के प्रयाग में महाकुंभ लगने वाला है। इसके पहले 2013 में यहां पूर्णकुंभ पड़ा था और इस महान आध्यात्मिक और सांस्कृतिक मेले को तत्कालीन सरकार के कद्दावर मंत्री रहे आजम खान ने कुंभ पर्व के महत्व को दर्शाया था। अब यह सौभाग्य यूपी के मुखिया योगी जी को मिलने जा रहा है।
स्थूल रूप के मंथन का जिक्र ऊपर की पंक्तियों में किया जा चुका है। सूक्ष्म रूप के मंथन का जिक्र श्रीमद्भग्वदगीता में योगेश्वर श्री कृष्ण ने किया है। सूक्ष्म रूप में हमारी ऊर्जा रूपी आत्मा का भी मंथन सतत रूप से होता रहता है। इस मंथन की अंतिम प्रक्रिया अमृत रूपी कुंभ अर्थात परमात्मा में मिलन का है।
श्रीमद्भगवद्गीता में योगेश्वर श्री कृष्ण ने द्वापरयुग में ही ऊर्जा संरक्षण का सिद्धांत बता दिया था। आत्मा ऊर्जा रूप और परमात्मा परम ऊर्जा रूप है। सृष्टि के प्रारंभ में ही ऊर्जा ही थी। आत्मा(ऊर्जा) अजर अमर है, यह न पैदा होती है न नष्ट होती है बस एक रूप से दूसरे रूप में परिवर्तित होती है। आत्मा में मंथन मानव शरीर के कैद में ही संभव है किंतु हम शरीर के लिए स्थूल के लिए मंथन में विचरण कर आत्मा के मंथन की दिशा को दिग्भ्रमित करते रहते हैं। हम शरीर/स्थूल को ही आत्मा मान लेते हैं। महाकुंभ के इस महापर्व में विशेष खगोलीय परिघटना के द्वारा उच्च लोकों के द्वार खुल जाते हैं। इस बारे में कई भारतीय धर्म ग्रंथों में बताया गया है। महाकुंभ के इस महापर्व पर उच्च लोकों के द्वार खुले रहने का महात्म्य को जानते हुए यदि हम आत्ममंथन के द्वार खोल लेते हैं तब भी हमें कई तरह के दूरगामी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष लाभ देखने को मिलते हैं।
कुंभ महापर्व भारतीय बौद्धिकता की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में से एक है। आध्यात्मिक मनोविज्ञान से जुड़ा यह महापर्व देश की विविधता में एकता का, सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक अवधारणाओं का साकार रूप है। करोड़ों लोगों का एक साथ आना और अपने-विचारों, संस्कृति, पंथों आदि का परिसंचरण करना अपने आप में विश्व के महानतम उत्सवों में प्रथम स्थान पर है। रहस्यों से भरे इस महापर्व को युनेस्को ने भी अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर में सम्मिलित किया है।