किशोरों, युवाओं और बच्चों के लिए उच्च टेक्नोलॉजी से लैस स्मार्टफोन के कुछ फायदे हो सकते हैं लेकिन उनके गंभीर दुष्प्रभाव इन फायदों पर कहीं अधिक भारी साबित हो रहे हैं। यह तो अब आम शिकायत है कि मोबाइल की वजह से बच्चों की पढ़ाई-लिखाई बाधित होती रही है लेकिन इसकी लत उनकी मानसिकता और व्यक्तित्व को भी उल्टी दिशा में ले जा रही है। कुछ महीनों में ऐसी घटनाएं काफी बढ़ी हैं जिनमें मोबाइल पर जुटे रहने से रोकने पर बच्चों ने अपने परिजनों पर हमले ही नहीं किए बल्कि कभी-कभी तो उनकी जान भी ले ली।
ओडिशा में एक छात्र ने ऑनलाइन गेम खेलने से मना करने पर अपने माता-पिता और बहन को मार डाला तो लखनऊ में एक किशोरी ने मोबाइल से बात करने से रोकने पर खुद ही जान दे दी तो एक अन्य लड़की ने अपने मां की हत्या कर दी। तो सवाल यह है कि मोबाइल का नशा चढ़ने पर मस्तिष्क की बनावट में कैसे बदलाव होते हैं कि एक किशोर या युवा की निगाह में जीवन और उसकी हकीकतों की कोई कीमत नहीं रह जाती। इससे तकनीक पर हद से ज्यादा फिदा होने का कॉम्प्लेक्स सामने आता है तो मोबाइल के सीमित इस्तेमाल की जरूरत भी उभरती है।
इंटरनेट युक्त मोबाइल की आम लोगों तक बढ़ती पहुंच साथ ही ये दोनों परिस्थितियां भी बड़े सवाल बनकर उभर रही हैं। घातक हिंसा की ओर धकेलने वाली ऐसी लत रोकने के लिए अगर समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए तो इसके कारण परिवारों में बच्चों द्वारा की जाने वाली हिंसा की घटनाएं बड़ी समस्या के रूप में जन्म लेने लगेंगी। इसे रोकने के उपायों पर मनोवैज्ञानिकों और सरकार दोनों को सक्रियता के साथ सोचना होगा। मोबाइल के तेजी के साथ बढ़ते चलन को देखते हुए यह काफी मुश्किल तो है लेकिन इसकी जरूरत भी उतनी ही तेजी के साथ अनिवार्य होती जा रही है।