हर्ष
हर्ष झलकता नयनों से
होता ये प्रकाशवान
मनुज को यह भेंट अनुपम
देता है भगवान
कभी नयन बोलते
कभी बोलते अश्रु
झुर्रियों और उम्र से
छुप न सकते चक्षु
हे ईश्वर तुमने दिये हैं
हमको अतुल्य उपहार
भावना हृदय की, ब्रज
करती, मनुज-श्रृंगार
अपना सूरज तुम उगने दो
अग्नि तुम दहकने दो
उमंगों को चहकने दो
जीवन के विस्तृत नभ में
अपना सूरज तुम उगने दो
ऊष्मा तुममें है बहुत
ऊर्जा का भी भंडार है
जीवन आलोकित कर लो
अपना सूरज तुम उगने दो
काली रातें भी आयेंगी
तम में तुमको भटकाएँगी
जन को प्रकाश तुम ही दोगे
अपना सूरज तुम उगने दो
करुणा का श्रृंगार करो
परहित का आधार धरो
जीवन सहज स्वीकार करो
ब्रज, अपना सूरज तुम उगने दो
- डॉ ब्रजभूषण मिश्र