- डॉ.दिनेश पाठक ‘शशि’
शाम को दफ्तर से लौटकर घर पहुंचा तो दरवाजा खोलते ही पत्नी दिखाई दी कुछ सुस्त सी, रुआँसी सी और बांउण्ड्रीवाल के सहारे बनी लम्बी क्यारी में लगे पेड़-पौधों के बीच कुछ खोजती सी। “अरे, क्या खोज रही हो रजनी। कुछ खो गया क्या ?” ‘नहीं, कुछ नहीं।’
“कुछ नहीं? फिर ये चेहरा एकदम से मुरझाया सा क्यों लग रहा है मुझे?”
मेरा यह वाक्य सुनते ही पत्नी की रुलाई फूट पड़ी, “वह मिल नहीं रहा है।” ।
“क्या नहीं मिल रहा है रजनी? मैं भी तो सुनूँ ऐसा क्या नहीं मिल रहा जिसके लिए तुम्हारी रुलाई फूट पड़ी।” पत्नी का निरीह सा, रुआसा सा चेहरा देख कर मेरे अन्दर करुणा का प्रादुर्भाव हुआ।
“वही, चिड़िया का बच्चा, पता नहीं कहाँ चला गया आज।” पत्नी ने उसी रुदन के बीच बताया तो मुझे याद आया कि घर की बाउण्ड्रीवाल के सहारे खड़े अशोक के पेड़ों के बीच एक बहुत ही नन्ही-सी चिड़िया ने अपने घोंसले में अण्डे दे रखे थे। उन्हीं अण्डों में से कुछ दिन पूर्व ही एक बहुत ही छोटा सा, लगभग एक-डेढ़ इंच बड़ा चिड़िया का बच्चा निकला था जो एक-दो दिन में ही घोंसले से नीचे गिर कर, नीचे क्यारी में लगे गुलदावरी के पौधों के बीच छिपकर बैठ जाता था। शाम को जब उसका मन करता तो पौधों के बीच से निकलकर धीरे-धीरे फुदकते हुए पत्थर के फर्श पर आ जाया करता था। फुदकते हुए जब वह उड़ने की कोशिश करता तो वहीं गिर पड़ता।
उस चिड़िया के नन्हे बच्चे ने रजनी ही नहीं मेरा भी मन मोह लिया था। जब भी वह पौधों के बीच से निकल कर फर्श पर आता, रजनी उसके पास पहुँच जाती। कभी उसके साथ बतियाने लगती तो कभी अपने बांये हाथ की हथेली को उसके आगे फैला देती। उस चिड़िया के नन्हें बच्चे का नाम चूं-धूं रख दिया गया। जैसे ही रजनी अपनी हथेली चूं-धूं के सामने फैलाती वह भी फुदकते हुए हथेली पर आकर बैठ जाता। रजनी उसे उठाकर पुचकारने लगतीं तो चूं-धूं रजनी के मुँह की ओर देखने लगता जैसे प्यार की भाषा, पुचकार को खूब समझ रहा हो और इस तरह रजनी का मन चिड़िया के उस नन्हें चूं-धूं में रमने लगा था।
रजनी का ध्यान चूं-धूं की ओर केन्द्रित होता देख. मेरे हृदय को एक सुकन सा महसूस हो रहा था क्योंकि मिंकू के चले जाने के बाद से रजनी खो-खोई सी रहने लगी थी। छह-सात महीने का मिंकू, जाने माँ के पेट से ही सब कुछ सीख आया था। ऐसी-ऐसी हरकतें करता कि रजनी ही नहीं मैं स्वयं भी उस पर बलिहारी जाता। कहते हैं न कि मूल से ब्याज अधिक प्यारा होता है। सो बडे पत्र के प्रथम बेटे मिंक ने इस घर में जन्म लेकर उम्र के इस पड़ाव पर आ गये हम दोनों पति-पत्नी के मन को मोह लिया था। जब वह खिलखिलाकर हँसता तो लगता संसार के सारे सुख इस एक क्षण में समाहित हो गये हैं। कभी अपनी दादी के गालों को मुँह से पपोरने लगता तो अनिवर्चनीय सुख की अनुभूति होती और पत्नी उसे सीने से चिपटाकर पुचकारने लगतीं।
पर पुत्र को नौकरी पर भी तो जाना था सो छुट्टियाँ खत्म होने पर उसने इस बार अपने साथ अपनी पत्नी एवं पुत्र मिंकू को भी साथ ले जाने का विचार बनाया। बहाना बस एक ही होता है सबका कि होटल का खाना अच्छा नहीं लगता याकि होटल का खाना खाते-खाते पेट खराब हो जाता है याकि पत्नी के साथ रहने से थोड़े समय की भी बचत होगी और पैसों की भी।
वगैरह…वगैरह….और फिर जो आज इंसान की नियति बन गई है कि संयुक्त परिवार के होते हुए भी, बिना किसी लड़ा ई-झगड़े के ही बेटा-बहू अपने बच्चों के साथ नौकरियों पर चले जाने के कारण अलग हो जाते हैं यानि एकल परिवारों में विभक्त हो जाते हैं, अम्बर भी जब अपनी पत्नी और पुत्र मिंकू को लेकर मुंबई चला गया तो मैंने तो अपने आप को संयमित कर लिया था किन्तु पत्नी अपने आप को नहीं समझा पा रही थीं। मैं तो सुबह ही दफ्तर को चला जाता और दिनभर दफ्तर की व्यस्तताओं में अपने आप को खो देता पर पत्नी क्या करे।
इत्ता बड़ा घर और उस घर में पूरे दिन वह अकेली। मिंकू था तो उसके साथ, उसकी शरारतों को देख-देख कर ही, उसके साथ बतियाते हुए ही वह अपना पूरा दिन गुजार देती थीं। किन्तु अब मिंकू के बिना घर काटने को दौड़ने लगा था। कभी-कभी तो वह सूनी-सूनी दीवारों से ही बातें करने लगतीं तो मेरा मन भी भावुक हो उठता। ऐसे में, मैं बहू को फोन लगाकर मिंकू से मोबाइल पर बात कराने को कहता तो उधर से मिंक बोलना न जानते हुए भी मोबाइल पर आं…..आं की आवाज ऐसे निकालता जैसे कछ कहना चाह रहा हो और अपनी दादी की बातों को भी सब समझ रहा हो।
मैं मिंकू को अपने घुटनों पर बैठाकर “झूनू के मानू के दामड़ दनिया दानू के…राजा बाबू की भीति गिरेगी, डुकरिया अपने बासन उठा लैयो….” बोलता और झूला झुलाता जाता तो मिंकू खिल्ल-खिल्ल हँसने लगता था। मुंबई चले जाने के बाद मैं मोबाइल पर ही मिंकू को वह पूरी लाइन-“झूनू के मानू के.. .” बोलने लगता तो मिंक भी उधर से आवाज में आरोह-अवरोह उत्पन्न करता सा आं….आं… की आवाज निकालने लगता। और इस प्रकार अधेड़ावस्था से वृद्धावस्था की ओर बढ़ रही इस उम्र में हम दोनों पति-पत्नी मिलजुलकर वक्त व्यतीत कर रहे थे।
पत्नी ने अपने मन-बहलाव का एक और रास्ता खोज लिया था। शाम होते ही वह दरवाजा खोलकर खड़ी हो जाती और सामने रास्ते में जो कोई भी अपनी गोद में छोटा बच्चा लेकर जाते हुए दिखता, रजनी उसे अपने पास बुला लेती, ड्राइंगरूम में बैठाकर चाय पिलाती और बच्चे को अपनी गोद में लेकर उसे बिस्कुट खिलाने लगती। इस प्रकार थोड़ा बहुत समय रजनी का छोटे बच्चों के बीच बीतता तो वह प्रसन्न दिखा देती।
मुंबई से मोबाइल पर बहू मिंकू की दिन-प्रतिदिन की गतिविधियों से अवगत कराती रहती, “आज मिंकू ने घुटरुन-घुटरुन चलना शुरु कर दिया,” “आज तो मिंकू घुटरुन-घुटरुन चलते हुए बैड के नीचे छुप गया, आज वह बाथरुम में पहुँच गया,”
आदि वाक्य मोबाइल पर सुनकर ही मिंकू का चित्र साक्षात सामने उपस्थित हो उठता और हम दोनों पति-पत्नी गूंगे के गुड़ की तरह अन्दर ही अन्दर उसका आनन्द महसूस करते, जैसे हमारे सामने ही मिंकू ये सब कर रहा हो।
मैंने अम्बर को फोन पर कहा कि मिंकू की घुटरुन-घुटरुन चलने की और कुछ सहारा लेकर खड़े होने की क्लिपिंग बनाकर मेल से भेज दो। भला हो अति-आधुनिक तकनीक का जिसने मोबाइल के अन्दर ही कैमरा आदि की बहुत सी सुविधाएं मुहैया करा दी हैं। घुटरुन-घुटरुन चलते हुए मिंकू कैसा लगता होगा, सहारा लेकर खड़े होते समय कैसा लगता होगा, वैसा ही जैसा छुटपन में अम्बर लगता था या किसी और तरह…..आदि की कल्पनाएँ मन में प्रसन्नता का संचार करने लगतीं।
अम्बर ने आश्वासन दिया कि 1-2 दिन में वह मिंकू की ये क्लिपिंग बनाकर मेल कर देगा। पर इंतजार करते-करते एक सप्ताह बीत गया तो मैंने फिर से फोन किया। सुनकर अम्बर ने फिर से वही उत्तर दिया-“पापाजी समय नहीं मिला था, बस 1-2 दिन में भेजता हूँ।”
लेकिन इस बार फिर से सप्ताह भर तक क्लिपिंग नहीं आई तो मैंने बहू को फोन किया, “बेटी, अम्बर को दफ्तर से फुरसत नहीं मिलती तो तुम्हीं भेज दो क्लिपिंग। कैसा लगता है मिंकू घुटरुन-घुटरुन चलते हुए हम प्रत्यक्ष नहीं तो कंप्यूटर पर ही देख लेंगे घर पर। “ठीक है पापाजी, इन्हें तो समय नहीं ही मिलता, मैं ही भेजती हूँ।” कहकर बहू ने आश्वस्त किया तो मुझे पढ़ी-लिखी बहू लाने पर गर्व महसूस हुआ। कितना फर्क है आज कल की पढ़ी-लिखी बहुओं और पुराने जमाने की अनपढ़ बहुओं में। कितनी होशियार है हमारी बहू।
लेकिन इस बार भी इन्तजार करते-करते काफी समय बीत गया और मिंकू के घुटरुन-घुटरुन चलने व सहारा लेकर खड़े होने की क्लिपिंग नहीं मिली तो फिर मैंने बेटा-बहू को बार-बार टोकना ही छोड़ दिया। नहीं मिलता होगा समय। क्यों उनके व्यक्तिगत जीवन में दखल दिया जाए बार-बार डिस्टर्ब करके। क्योंकि जीवन की आपाधापी में आज सभी व्यस्त हैं। पर ऐसा नहीं कि आप जो काम करना चाहें उसे न कर सकें। भावुकता एवं संवेदना का जीवन में अलग ही स्थान है और अपने नाती के बाल-रूप को और उसकी बाल-क्रीड़ाओं को देख-देख कर वृद्ध माँ-बाप को अनिवर्चनीय स्वर्गिक आनंद की प्राप्ति होती है उसका सीधा सम्बन्ध भावना से है। नहीं तो नाते-रिश्तों का महत्व ही क्या है। “ठुमकि चलत रामचन्द्र बाजत पैजनिया…. ” की एक पंक्ति ही रामचन्द्र जी के बाल-रूप का साक्षात् चित्र उपस्थित कर देती है और आँखों के समक्ष रामचन्द्र जी के बालरूप में अपने नाती-नातिन और धेवती-धेवते की बाल-क्रीड़ाएँ नजर आने लगती हैं।
मिंकू की घुटरुन-घुटरुन चलने और को सहारा लेकर खड़े होने की क्लिपिंग के बारे में पत्नी को बताया तो उनकी आँखों में प्रेम का सागर उमड़ पड़ा था पर इन्तजार के सप्ताह दर सप्ताह बीतते जब महीना भर बीत गया और क्लिपिंग नहीं आई तो उनकी आँखों में आशा की जगह निराशा ने ले ली और चेहरे पर उदासी ने डेरा जमा लिया।
ऐसे में उस नन्हें से चिड़िया के बच्चे ने जैसे मिंकू की जगह ले ली। वह अब गमले के स्टैण्ड पर कुदक कर बैठ जाता और वहीं बैठे-बैठे चूं…चूं करने लगता तो पत्नी उसे कटोरी में पानी पिलाने की कोशिश करती। वह फर्श पर उड़ने की कोशिश करता और वहीं कलामुंडी खाकर गिर पड़ता। रजनी उसकी इन बाल-क्रीड़ाओं को देख-देख कर प्रसन्न होती और कहती, “बच्चा चाहे इंसान का हो या जानवर या पक्षी का, सचमुच अपनी क्रीड़ाओं से मन मोह लेता है।”
दफ्तर से आकर मैं भी चूं…चूं…. को देखने के लिए लालायित रहने लगा था। वह उड़ने के प्रयास में जब कलामुंडी खाता तो बहुत मोहक लगता। आज सुबह जब मैं दफ्तर गया था तो उसे गमले के स्टैण्ड पर बैठे छोड़ गया था किन्तु शाम को लौटने पर घर में घुसते ही पत्नी के चेहरे की उदासी और नजरों का इधर-उधर खोजना देखकर ही मैं सन्न रह गया था। क्या वह इतनी जल्दी उड़ गया? मैंने पत्नी को तसल्ली देने के लिए कहा, “अरे रजनी अब क्यों परेशान हो रही हो। देखो वह कहीं उड़ गया होगा। इंसान हो या पक्षी जब पर उग आते हैं तो वह सबकी मोहमाया छोड़कर उड़ ही जाता है। है न?” सुनकर पत्नी मेरे चेहरे की ओर घूरने लगी और उनकी आँखों में घुमड़ आए बादलों को सहन न कर पाने के कारण, मैं जल्दी से ड्राइंगरूम में घुस गया।
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