जब बेटे को जरा-सी खरोंच भी लगती थी, पिता की आँखें छलक पड़ती थीं। सोचता हूँ, जब वे इस दुनिया से गए, तो बेटे की आँखों में आंसुओं को देख उनकी आत्मा कितनी कांपी होगी! शायद पिता ने बेटे से कहीं अधिक दुख में आंसू बहाए होंगे। यह मैं जानता हूँ। फिर भी, बेटे को अकेला छोड़, पिता धरती से स्वर्ग की ओर चले गए। हर पिता शायद अपनी यह यात्रा आंसुओं के साथ ही पूरी करता है। इसमें कोई संदेह नहीं कि जैसे ही उनकी उंगली छूटी, वे पितर बन गए।
पिता को पितर बनते देखना एक ऐसी पीड़ा है, जिससे बड़ा दुख शायद ही कोई हो। लेकिन जो होना है, वह तो होगा ही कौन रोक सकता है? अगर रोक सकते, तो पिता कभी वह उंगली न छोड़ते। पितृपक्ष के अलावा भी, मन बार-बार आपको इस लोक में खींचने से कतराता है। क्यों बार-बार आपको इस संसार के बंधन में बांधा जाए? ईश्वर आपको इस मोह से मुक्ति दे, मोक्ष दे। यह संसार का बंधन बड़ा दुख देता है।
आने-जाने की यह पीड़ा मन को छलनी कर जाती है। प्रभु आपको इस दुख से आजादी दे। फिर भी, मन यह भी जानता है कि पूर्ण मुक्ति कितनी कठिन है। पिता, वहाँ भी शायद दोनों हाथ उठाकर आशीर्वाद ही दे रहे होंगे—यशस्वी बनो, दीर्घायु बनो, विजयी बनो। सब कुछ देकर, पितृऋण से मुक्त कर, वे उस लोक में अपना स्थान बना चुके हैं।
हे पिता, आपको मुक्ति मिले, मोक्ष मिले, आप तृप्त हों। और हमें, आपके आशीषों की शक्ति मिले। – आशीष