डॉ दिलीप अग्निहोत्री
भारतीय दर्शन में अवतारों के शिशु रूप की बड़ी महिमा है। भगवान शिव जी तो इस रूप के दर्शन करने को भेष बदल कर अयोध्या गए थे, जहां प्रभु राम शिशु रूप में लीला कर रहे थे। श्रीकृष्ण की लीला तो अति आकर्षक है। भक्त कवियों ने उनके इस रूप का खूब गुणगान किया है। मनुष्य को भी प्रभु के इस रूप का ध्यान करना चाहिए। इक्यावन और वृंदावन का एकसाथ उल्लेख विचित्र लग सकता है। सतही तौर पर देखें तो इसमें केवल साधारण तुकबंदी दिखाई देगी। तीनों शब्दों में एक समानता है। इनके अंत में वन शब्द है। इसके अलावा अन्य कोई समानता नजर नहीं आती।
पहले देवनागरी और रोमन की संख्या है। बाद में स्थान का उल्लेख है। इनका भी कोई आपसी संयोग या संबंध नहीं है। लेकिन कथावाचक अतुल कृष्ण महराज इस तुकबंधी को आज व्यावहारिक आश्रम व्यवस्था से जोड़ते हैं। शास्त्र में सौ वर्ष की सामान्य आयु मानी गई। पहले ऐसा ही था। इसमें पचास वर्ष की आयु के बाद पच्चीस वर्ष तक वानप्रस्थ तथा अंतिम पच्चीस वर्ष संन्यास की व्यवस्था थी। संन्यास में व्यक्ति सभी भौतिक सम्पत्ति, साधनों का त्याग करके तपस्या के लिए वन में चला जाता था। आज यह व्यवस्था व्यावहारिक नहीं मानी जा सकती। न सौ वर्ष की स्वस्थ आयु रही, न वन जाकर तपस्या करना संभव रहा। ऐसे में आज व्यक्ति को इक्यावन या फिफ्टीवन की अवस्था से ही अपने हृदय को वृंदावन बनाने का प्रयास करना चाहिए। किसी बाहरी वन में जाने की आवश्यकता नहीं है। घर-गृहस्थी के त्याग की भी जरूरत नहीं। मन को वृंदावन बनाने का मतलब है कि अध्यात्म की भावभूमि तैयार की जाए, जिसमें भौतिक जगत में रहते हुए भी उसके प्रति अनाशक्त भाव हो। सबके साथ रहते हुए भी मोहमाया के बंधन न हो। ईर्ष्या, द्वेष, निन्दा,छल-कपट आदि से मुक्त हो। ईश्वर के प्रति समर्पण भाव हो, तो मन में ही वृंदावन निर्मित होने लगेगा। इस भावभूमि में ईश्वर की अनुभूति होगी।
कलियुग में सरल हुई साधना सतयुग में ईश्वर की आराधना सर्वाधिक कठोर थी। हजारों वर्ष तप करना पड़ता था, अन्न-जल का त्याग करना पड़ता था। किन्तु क्रमश: प्रत्येक युग में साधना सरल होती गई। कलियुग में यह सर्वाधिक सरल है। गोस्वामी जी ने कहा कलियुग केवल नाम अधारा…। अर्थात इसमें ईश्वर का नाम लेना, स्मरण करना, कथा सुनना, स्वाध्याय करना, सत्संग करना आदि ही पर्याफ्त होता है। तप, विशाल यज्ञ आदि आज सबके लिए संभव ही नहीं है। गृहस्थ जीवन में प्रभु के नाम का स्मरण ही भवसागर को पार करा सकता है।सतयुग में हजारों वर्ष की तपस्या कपोल कल्पना मात्र नहीं है। तब व्यक्ति की आयु इतनी हुआ करती थी। वह हजारों वर्ष तप में लगा देता था। मनु-शतरूपा ने पच्चीस हजार वर्ष तप किया था।
सतयुग में औसत आयु एक लाख वर्ष, त्रेता में दस हजार वर्ष, द्वापर में एक हजार वर्ष तथा कलियुग के प्रारंभिक चरण में मानव की औसत आयु सौ वर्ष थी। आज मेडिकल साइंस के तमाम प्रयासों के बाद औसत आयु सत्तर वर्ष है। ऐसे में पिछले तीन युगों की भांति तपस्या की ही नहीं जा सकती। फिर भी आज धर्म, अर्थ, काम का पालन करते हुए, मोक्ष की ओर बढ़ा जा सकता है। धर्म के अनुकूल अर्थ का उपार्जन किया जाए, तभी वह शुभ या कल्याणकारी होता है।