एक महात्मा थे। उन्हे कभी गुस्सा नहीं आता था। उनकी कुटिया के पास ही एक नौजवान रहता था। उसे यह देखकर बड़ी हैरानी होती थी। आखिर ऐसा आदमी भी क्या कि उसे गुस्सा ही न आये। उसने उनकी परीक्षा लेनी चाही। एक दिन उसने उन्हें खाना खाने के लिए बुलाया। जब वह आये तो उसने कहा, खाना तो ख्तम हो गया। महात्मा ने मुस्कराकर कहा, कोई बात नहीं इतना कहकर वह चल दिये। थोड़ी दूर पहुंचे कि नौजवान ने उन्हें पुकारा। वह वापस आ गये तो बोला, आप जैसे साधु बहुत फिरते है। वे पेटू होते है। मैं एसो महात्माओं को खाना नहीं खिलाता।
महात्मा ने बड़े प्यार से उसकी ओर देखा और बोले, तुम ठीक कहते हो। इतना कहकर वह बाहर आ गये कि तभी युवक ने उन्हें फिर पुकारा। वह लौटकर गये तो उसने कहा-मेरे घर में खाना तो है नहीं, पत्थर हैं। खाना चाहों तो खा लो। महात्मा ने बड़ी शान्ति से उसके चेहरे को देखा। बोले, पत्थर कहीं खाये जाते है। युवक ने देखा कि महात्मा के चेहरे पर खीज या क्रोध का चिन्ह भी नहीं है।
उसने लल्ला वश महात्मा के पैर पकड़ लिये। पश्चताप के स्वर में बोला, महाराज, आप मेरी उदण्डता के लिए क्षमा करें। मेरे कारण आपको बड़ा कष्ट हुआ। महात्मा ने युवक को उठाकर सीने से लगा लिया। बोले बेटे गलती आदमी से हो ही जाती है। पर जो आपनी गलती को मान लेता है और फिर उसे न करने का संकल्प करता है, उसकी गलती उसके जीवन को सफल कर देती है।