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    पवित्र ‘‘गीता’’ न्याय के मार्ग पर चलने की सीख देती है

    ShagunBy ShagunAugust 18, 2022 festival No Comments6 Mins Read
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    डॉ. जगदीश गांधी

    श्रावण कृष्ण अष्टमी पर जन्माष्टमी का पावन त्यौहार बड़ी ही श्रद्धापूर्वक मनाया जाता है। आज से पाँच हजार वर्ष पूर्व इसी दिन भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा की जेल में हुआ था। कर्षति आकर्षति इति कृष्णः। अर्थात श्रीकृष्ण वह है जो अपनी ओर आकर्षित कर लेता है। श्रीकृष्ण सबको अपनी ओर आकर्षित कर सबके मन, बुद्धि व अहंकार का नाश करते हैं।

    भारतवर्ष में इस महान पर्व का आध्यात्मिक एवं सांस्कृतिक दोनों तरह का विशिष्ट महत्व है। यह त्योहार हमें आध्यात्मिक एवं लौकिक संदेश देता है। आस्थावान लोग इस दिन घर तथा पूजा स्थलों की साफ-सफाई, बाल कृष्ण की मनमोहक झांकियों का प्रदर्शन तथा सजावट करके बड़े ही प्रेम व श्रद्धा से आधी रात के समय तक व्रत रखते हैं। श्रीकृष्ण के आधी रात्रि में जन्म के समय पवित्र गीता का गुणगान तथा स्तुति करके अपना व्रत खोलते हैं तथा पवित्र गीता की शिक्षाआं पर चलने का संकल्प करते हैं। साथ ही यह पर्व हर वर्ष नई प्रेरणा, नए उत्साह और नए-नए संकल्पों के लिए हमारा मार्ग प्रशस्त करता है। हमारा कर्तव्य है कि हम जन्माष्टमी के पवित्र दिन श्रीकृष्ण के चारित्रिक गुणों को तथा पवित्र गीता की शिक्षाओं को ग्रहण करने का व्रत लें और अपने जीवन को सार्थक बनाएँ। यह पर्व हमें अपनी नौकरी या व्यवसाय को समाज हित की पवित्र भावना के साथ अपने निर्धारित कर्तव्यों-दायित्वों का पालन करने तथा न्यायपूर्ण जीवन जीते हुए न्यायपूर्ण समाज के निर्माण की सीख देता है।

    ‘कृष्ण’ को कोई भी शक्ति प्रभु का कार्य करने से रोक नहीं सकी:

    कृष्ण ने बचपन में ही ईश्वर को पहचान लिया और उनमें अपार ईश्वरीय ज्ञान व ईश्वरीय शक्ति आ गई और उन्होंने बाल्यावस्था में ही कंस का अंत किया। इसके साथ ही उन्होंने कौरवों के अन्याय को खत्म करके धरती पर न्याय की स्थापना के लिए महाभारत के युद्ध की रचना की। बचपन से लेकर ही कृष्ण का सारा जीवन संघर्षमय रहा किन्तु धरती और आकाश की कोई भी शक्ति उन्हें प्रभु के कार्य के रूप में न्याय आधारित साम्राज्य धरती पर स्थापित करने से नहीं रोक सकी। परमात्मा ने कृष्ण के मुँह का उपयोग करके न्याय का सन्देश पवित्र गीता के द्वारा सारी मानव जाति को दिया।

    परमात्मा सज्जनों का कल्याण तथा दुष्टों का विनाश करते हैं:

    महाभारत में परमात्मा की ओर से वचन दिया गया है कि ‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत, अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्। परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्, धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे-युगे।।’ अर्थात धर्म की रक्षा के लिए मैं युग-युग में अपने को सृजित करता हूँ। सज्जनों का कल्याण करता हूँ तथा दुष्टों का विनाश करता हूँ। धर्म की संस्थापना करता हूँ। अर्थात एक बार स्थापित धर्म की शिक्षाओं को पुनः तरोताजा करता हूँ। अर्थात जब से यह सृष्टि बनी है तब से धर्म की स्थापना एक बार हुई है। धर्म की स्थापना बार-बार नहीं होती है।

    (अ) परमात्मा ने अपने धर्म (या कर्त्तव्य) को स्पष्ट करते हुए अपने सभी पवित्र शास्त्रों में एक ही बात कही है जैसे पवित्र गीता में कहा है कि मेरा धर्म है, ‘‘परित्राणांय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’’ अर्थात परमात्मा की आज्ञाओं को जानकर उन पर चलने वाले सज्जनों (अर्थात जो अपनी नौकरी या व्यवसाय समाज के हित को ध्यान में रखकर करते हैं) का कल्याण करना तथा मेरे द्वारा निर्मित समाज का अहित करने वालों का विनाश करना।

    (ब) परमात्मा ने आदि काल से ही मनुष्य का धर्म (कर्त्तव्य) यह निर्धारित किया है कि वह केवल अपने सृजनहार परमात्मा की इच्छाओं एवं आज्ञाओं को शुद्ध एवं पवित्र मन से पवित्र ग्रन्थों को गहराई से पढ़कर जाने एवं उन शिक्षाओं पर चलकर बिना किसी भेदभाव के सारी सृष्टि के मानवजाति की भलाई के लिए काम करें। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है कि प्रभु की शिक्षाओं को जानना तथा पूजा के मायने है उनकी शिक्षाआंे पर दृढ़तापूर्वक चलना। मात्र भगवान श्रीकृष्ण के शरीर की पूजा, भोग लगाने तथा आरती उतारने से कोई लाभ नहीं होगा।

    सारी सृष्टि की भलाई ही हमारा धर्म है:

    भगवान श्रीकृष्ण से उनके शिष्य अर्जुन ने पूछा कि प्रभु! आपका धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अपने शिष्य अर्जुन को बताया कि मैं सारी सृष्टि का सृजनहार हूँ। इसलिए मैं सारी सृष्टि से एवं सृष्टि के सभी प्राणी मात्र से बिना किसी भेदभाव के प्रेम करता हूँ। इस प्रकार मेरा धर्म अर्थात कर्तव्य सारी सृष्टि तथा इसमें रहने वाली मानव जाति की भलाई करना है। इसके बाद अर्जुन ने भगवान श्रीकृष्ण से पूछा कि भगवन् मेरा धर्म क्या है? भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि तुम मेरी आत्मा के पुत्र हो। इसलिए मेरा जो धर्म अर्थात कर्तव्य है वही तुम्हारा धर्म अर्थात कर्तव्य है। अतः सारी मानव जाति की भलाई करना ही तुम्हारा भी धर्म अर्थात् कर्तव्य है।

    ‘अर्जुन’ के मोह का नाश प्रभु की इच्छा और आज्ञा को पहचान लेने से हुआ:

    भगवानोवाच पवित्र गीता के ज्ञान को एकाग्रता से सुनने के बाद अर्जुन हाथ जोड़कर बोला प्रभु अब मेरे मोह का नाश हो गया है और मुझे ईश्वरीय ज्ञान एवं मार्गदर्शन मिल गया है। अब मैं निश्चित भाव से युद्ध करूँगा। अर्जुन ने विचार किया कि जो परमात्मा की बनायी सृष्टि को कमजोर करेंगे वे मेरे अपने कैसे हो सकते हैं? पवित्र गीता के ज्ञान को जानकर उसने निर्णय लिया कि न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना चाहिए। फिर अर्जुन ने अन्याय के पक्ष में खड़े अपने ही कुल के सभी अन्यायी यौद्धाओं तथा 11 अक्षौहणी सेना का महाभारत का युद्ध करके विनाश किया। इस प्रकार अर्जुन ने धरती पर प्रभु का कार्य करते हुए धरती पर न्याय के साम्राज्य की स्थापना की।

    परमात्मा का वास मनुष्य के पवित्र हृदय में होता है:

    परमात्मा ने कहा कि मैं केवल आत्म तत्व हूँ और मैं मनुष्य की सूक्ष्म आत्मा में ही रहता हूँ। वहीं से इस सृष्टि का संचालन करता हूँ। ‘जबकि मेरी रचना- अर्थात मनुष्य’ के हृदय में (1) आत्मतत्व होने के साथ ही साथ उसके पास (2) शरीर तत्व या भौतिक तत्व भी होता है। यह सारी सृष्टि और सृष्टि की सभी भौतिक वस्तुएं मैंने मनुष्य के लिए बनायी हैं। बस मनुष्य का हृदय और आत्मा मैंने अपने रहने के लिए बनायी है। ऐसा न हो कि कहीं हमारे हृदय में उत्पन्न स्वार्थ का भेड़िया हमारी आत्मा को ही न नष्ट कर डाले। ‘गीता’ का सन्देश है कि न्यायार्थ अपने बन्धु को भी दण्ड देना चाहिए। हमारे ऋषि-मुनियों का चारों वेदों के ज्ञान का एक लाइन में सार है कि उदारचरितानाम्तु वसुधैव कुटुम्बकम्अर्थात उदार चरित्र वाले के लिए यह वसुधा कुटुम्ब के समान है। गीता का एक लाइन में सार है – सर्वभूत हिते रतः अर्थात समस्त प्राणी मात्र केे हित में रत हो जाये।

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