एक साधु थे। जंगल में रहते थे। एक दिन घूमते हुए वह नदी के किनारे गये। बड़ा रमणीक स्थान था। चारों ओर प्रकृति का साम्राज्य फैला था। सघन वृक्षों पर पक्षी चहचहा रहे थे। संत ने देखा कि एकान्त स्थान पर एक पेड़ के नीचे एक युवक और युवती बैठे हैं। दोनों बड़े आनंदित थे। दोनों के हाथ में एक-एक गिलास था। संत ने सोचा कि इस निर्जन स्थान पर बैठकर ये लोग निश्चय ही मदिरापान कर रहे होंगे और गंदी बातें कर रहे होंगे। शराब पीकर आदमी का दिमाग फिर जाता है। वह बुरी बातें ही सोचता है, बुरे काम ही करता है। आदमी का कितना पतन हो गया है!
वह यह सब सोच ही रहे थे कि सामने से एक नाव आती दिखाई दी। नदी की धारा बड़ी तीव्र थी। जोर की लहरें उठ रही थीं। अचानक नाव को लहरों का थपेड़ा लगा और वह उलट गई। संत के मुंह से जोर की चीख निकली। उनकी आंखें बंद हो गईं। जैसे ही आंखें खुलीं कि देखते क्या हैं कि जिस युवक को उन्होंने पापी समझ रखा था, वही युवक छलांग लगाकर पानी में कूदा और पांच आदमियों को निकालकर बाहर ले आया। संत खड़े-खड़े देख रहे थे। युवक पास आकर बोला, “महाराज, भगवान की कृपा से पांच आदमियों की तो जान बच गई। अब एक रह गया है।
उसके प्राण आप बचा लीजिये।” संत को तैरना नहीं आता था। वह कूदने की हिम्मत कैसे कर सकते थे? यह देखकर युवक ने कहा, “स्वामीजी, इंसान के लिए इंसान से बढ़कर और कुछ नहीं है।” इतना कहकर उसने एक छलांग फिर लगाई और अंतिम व्यक्ति को भी बचाकर बाहर ले आया। साधु का लज्जा से सिर झुक गया। जिसे वह पापी समझ रहे थे, उससे बढ़कर पुण्यात्मा उन्होंने अपने जीवन में नहीं देखा था।