‘अब आया ऊंट पहाड़ के नीचे’ वाली कहावत एक बार फिर चर्चा में है। चुनावी चंदा राजनीति में सामान्य चलन रहा है लेकिन इसको लेकर राजनीतिक दलों द्वारा बरती जाने वाली गोपनीयता सवालों के घेरे में रही है। इसमें पारदर्शिता की मांग भी की जाती रही। इसके लिए केंद्र की राजग सरकार ने 2017 में चुनावी बांड का प्रावधान करते हुए दावा किया था कि इससे राजनीतिक दलों को मिलने वाली फंडिंग और चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी और काले धन पर अंकुश लगेगा लेकिन इसके विरोध में तर्क दिया गया कि ये बांड खरीदने वाले की पहचान उजागर नहीं की जाती जिससे चुनाव में ये काले धन के इस्तेमाल का माध्यम बन सकते हैं।
सर्वोच्च न्यायालय ने इसी पृष्ठभूमि में चुनावी बांड पर यह कह कर तत्काल प्रभाव से रोक लगा दी है कि यह स्कीम असंवैधानिक है। उसने इसकी गोपनीयता बनाए रखने को भी गलत बताया है और कहा है कि मतदाता को चुनावी फंडिंग के बारे में जानने का अधिकार है क्योंकि इससे मतदान के लिए सही चयन होता है। इससे लोगों के सूचना के अधिकार का भी हनन होता है। न्यायालय का यह कहना है कि एक सामान्य व्यक्ति के मुकाबले किसी कंपनी की ओर से दी गई फंडिंग का राजनीतिक प्रक्रिया पर ज्यादा असर हो सकता है।
यह फंडिंग शुद्ध रूप से व्यापार होती है। वैसे तो यह बात पहले भी कही जाती रही है कि औद्योगिक घरानों द्वारा राजनीतिक दलों, खासकर सत्तारूढ़ दल को चंदे के रूप में भारी भरकम धनराशि देने का खास मकसद अपने पक्ष में निर्णयों को प्रभावित करना होता है। चूंकि इलेक्टोरल बांड स्कीम में चंदा देने वाले का नाम गोपनीय रखने की व्यवस्था थी, इसलिए कॉरपोरेट जगत भरपूर पैसा राजनीतिक दलों को देता था
इस पैसे के स्रोत के बारे में भी पता नहीं लगता था तो काला धन भी इसी में खप जाने का पूरा अंदेशा था। इसीलिए न्यायालय ने चुनाव आयोग को 2019 से दिए गए चंदे का पूरा विवरण अपनी आधिकारिक वेबसाइट पर देने का आदेश भी दिया है। न्यायालय के इस निर्णय को बड़ा चुनाव सुधार माना जाना चाहिए क्योंकि इससे चुनावी चंदे के बारे में पूरी पारदर्शिता आएगी और इसमें किया जाने वाला खेल बंद हो सकेगा।